परवाज़ कटे पंखो से भी होती है साहब, नौजवान समाजसेविका सबा खान खुद के हाथो से खाना पका कर बच्चो को करती है तकसीम
ईदुल अमीन
उम्र तजुर्बे की मुह्ताज नही होती। वैसे ही जैसे परवाज़ के लिए पंख नही बल्कि हौसला होना चाहिए। परवाज़ पंखो की मोहताज नही होती है। इसका जीता जागता उदहारण है सबा खान। सबा खान समाज सेवा से जुडी हुई एक युवती है। जिस उम्र में अक्सर लडकिया फैशन और अन्य शौक पर खुद का ध्यान केन्द्रित करती है। उस छोटी सी उम्र में इस युवती ने खुद का शौक चुना समाजसेवा। समाजसेवा को बतौर शौक रखने वाली सबा खान लॉक डाउन में गरीबो को खाने की मदद कर रही है वही ज़रूरतमन्दो को उनके राशन इत्यादि की ज़रुरतो को पूरा करने में जी जान लगा बैठी है।
वाराणसी जनपद के रूलर और स्लम एरिया समझा जाने वाला पड़ाव जैसे क्षेत्र में इंडियन केयर सोशल फाउंडेशन नाम से एनजीओ चलाने वाली सबा खान बताती है कि बचपन से ही समाजसेवा में एक ऐसा सुकून मिलता है जैसे प्यास से तड़पते हुवे इंसान को पानी पीने के बाद राहत मिलती है। पढाई के साथ साथ मैंने समाजसेवा करना शुरू कर दिया। ज़रूरत पड़ने पर मैंने एक संस्था भी रजिस्टर्ड करवा लिया। मुझको सियासत से नहीं मतलब, आप कह सकते है कि उनका जो पैगाम है वह अहले-सियासत जाने, हमारा तो पैगाम-ए-मुहब्बत है जहा तक पहुचे। सियासत की रवादारियो का नतीजा आपको दिखाई दे रहा है। समाज आज इसी सियासती रवादारी के वजह से किस मुकाम पर है आपको दिखाई ही दे रहा होगा। आंटे, मैदे, बेसन की रोटिया आपने देखा होगा, कभी फुर्सत मिले तो स्लम एरिया में जाकर सियायत की भी रोटी देख लीजिये।
सबा ने हमसे बात करते हुवे कहा कि मुझको सियासत से कोई मतलब नही है। खुद की हैसियत के मुताबिक मैं खाना अपने हाथो से पकाती हु, इसके बाद उसको पैकिंग भी खुद करती हु और फिर गरीब बच्चो में तकसीम करती हु। इस एक बात का अफ़सोस रह जाता है कि कुछ कमी है। क्योकि खाना सभी बच्चो को चाहिए और उतनी पैकेट बन नही पाती है। इसके बावजूद मेरी कोशिश रहती है कि रोज़ ही पिछले दिन के बनिस्बत चार पांच पैकेट और बना लू।
हमने देखा कि सबा जब खाने का पैकेट बच्चो को दे रही थी उस वक्त सोशल डिस्टेंस बंच्चो का शुन्य दिखाई दिया। इस बनिस्बत सवाल पूछने पर सबा ने कहा कि मैंने पढ़ा था, महात्मा गाँधी ने कहा था कि किसी भूखे का रब बदलना कितनी देर काम है। अगर आप गौर करे तो आपको इसका मतलब समझ आ जायेगा। सिर्फ एक रोटी की ही तो बात होती है। ये बच्चे रोज़ ब रोज़ वक्त पर मेरे पास घर के बाहर आ जाते है। इसकी भूख को उम्मीद रहती है कि खाना मिलेगा, और भूख सोशल डिस्टेंस नही देखती है साहब, मुझको बच्चो से बहुत प्यार है। मैं इनको कोशिश करती हु कि सोशल डिस्टेंस बना कर रखे। मैं अक्सर कहती भी हु मगर हालत आप खुद अपनी निगाहों से देख सकते है।
हमारे सवाल प्रशासनिक मदद पर सबा ने कहा कि बेमतलब है ये बात की हम शासन अथवा प्रशासन से ये उम्मीद करे कि एक एक घर में वह खुद खाना पहुचाये। प्रशासन स्थानीय पुलिस बहुत बढ़िया प्रयास कर रही है। मगर इस हकीकत से भी हमको रूबरू होना पड़ेगा कि रोज़ ब रोज़ प्रशासन हर एक घर में खाना नही पंहुचा पायेगा। प्रशासन और स्थानीय पुलिस के प्रयास को मैं सलाम करती हु। मगर इस ज़रूरत के लम्हों में हमको भी अपनी कोशिश करना चाहिए।
(लेख को प्रधान सम्पादक तारिक आज़मी द्वारा एडिट किया गया है)