हसरत मोहानी : गंगा जमुनी तहज़ीब का इंक़लाबी शायर और रसखान की परंपरा का आखिरी शायर और स्वतंत्रता सेनानी
शाहीन अंसारी
शायरी की बात आये और हसरत मोहानी का ज़िक्र न आये ये शायद बेमायने होगा। वैसे उर्दू अदब के बहुत सारे हिंदुस्तानी शायर ऐसे हुए हैं, जिनकी क़लम ने अपनी ताकत पर भारतीयों को अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये उत्साहित किया, मगर आज हम जिस आजादी के दीवाने की बात कर रहे हैं, वो शायर होने के साथ-साथ एक पत्रकार, राजनीतिज्ञ और स्वतंत्रता सेनानी और साझी विरासत के वाहक भी रहे।
“इंक़लाब ज़िंदाबाद” का नारा देने वाले आज़ादी के सच्चे सिपाही ‘मौलाना हसरत मोहानी, जो मादरे वतन के लिए अंग्रेजों के खिलाफ हमेशा आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते रहे। आज़ादी के दीवानों में उनका नाम बड़े इज्जत और फख़्र के साथ लिया जाता है। मशहूर शायर मौलाना हसरत मोहानी का पूरा नाम सैय्यद फ़ज़ल-उल-हसन और उपनाम ‘हसरत’ था। 1 जनवरी 1875 को उन्नाव के मोहान गाँव में जन्मे हसरत मोहानी एक बेहतरीन शायर और देश की आज़ादी के सच्चे सिपाही थे। 13 मई 1951 में कानपुर में हसरत मोहानी ने दुनिया को अलविदा कहा था। हसरत मोहानी को पढ़ाई का शौक बचपन से ही था, यही कारण था कि उन्होंने राज्य स्तरीय परीक्षा में टॉप किया था।
इसी मुत्ताल्लिक मशहूर शहर मुनव्वर राणा ने अपने मुहाजिरजाने में एक शेर भी लिखा है कि – “वो जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जारी है, वही हसरत के ख्वाबो को भटकता छोड़ आये है।” शायरी का शौक रखने वाले मोहानी ने उस्ताद तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी से शायरी कहना सीखा था। उर्दू शायरी में हसरत से पहले औरतों को ऊंचा मकाम हासिल नहीं था। आज की शायरी में औरत को जो हमक़दम और दोस्त के रूप में देखा जाता है वह कहीं न कहीं हसरत मोहानी की कोशिश का नतीजा है।
अपनी गज़लों में उन्होंने रूमानियत के साथ-साथ समाज, इतिहास और सत्ता के बारे में भी काफी कुछ लिखा है। ज़िंदगी की खूबसूरती के साथ-साथ आज़ादी के जज़्बे की जो झलक उनकी गज़लों में मिलती है वो और कहीं नहीं मिलती। उन्हें प्रगतिशील ग़ज़लों का प्रवर्तक कहा जा सकता है। हसरत ने अपना सारा जीवन शायरी करने तथा आज़ादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में ही बिताया।
साहित्य और राजनीति का सुंदर मेल कितना मुश्किल होता है, ऐसा जब जब ख़्याल आता है, तब खुद ब खुद हसरत पर नज़र जाती है। इनकी मजमुआ-ए-शायरी (कविता संग्रह) ‘कुलियात-ए-हसरत’ के नाम से प्रकाशित है। उनकी लिखी कुछ खास किताबें ‘कुलियात-ए-हसरत’, ‘शरहे कलामे ग़ालिब’, ‘नुकाते सुखन’, ‘मसुशाहदाते ज़िन्दां’ हैं।
मौलाना हसरत मोहानी हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। मौलाना के मुताबिक उनके यहां इस्लाम के बुज़ुर्गों के अलावा जिनका नाम बार-बार आया है वो नाम है “श्रीकृष्ण जी” का। मौलाना हसरत मोहानी जी ने श्रीकृष्ण जी पर अवधी और उर्दू दोनों में रचनाएं की है। आजादी की रवायत के मुताबिक वे अवध की तहजीब के प्रतिनिधि कवि है और रसखान के बाद कृष्ण पर फिदा एक अज़ीम शख्सियत।
उनका शायरी का मिजाज देखिये —
‘हसरत’ की भी क़ुबूल हो, मथुरा में हाज़री।
सुनते हैं आशिक़ों पे, तुम्हारा करम है आज।।
फिर कहा कि–
मथुरा नगर है आशिक़ी का,
दम भरती है आरज़ू उसी का
हर ज़र्रा सरज़मीन-ए-गोकुल,
वारा है जमाल-ए-दिलबरी का
मौलाना हसरत मोहानी के तीन एम (M) मशहूर थे। एक मक्का, दूसरा मथुरा, तीसरा मॉस्को। हसरत मोहानी ने मक्का जाकर 12-13 बार हज किया। हर एक जन्माष्टमी और अन्य अवसरों पर मथुरा जाते थे। मक्का उनका विश्वास था। मथुरा से उनको मोहब्बत थी। और मॉस्को को राजनीतिक रूप से आवश्यक समझते थे। उनका इस्लाम पर पक्का विश्वास था लेकिन दूसरों के विश्वास और धर्म का आदर हसरत साहब करते थे। तीन एम से उनका हिंदुस्तानी मुसलमानों को संदेश है कि वो अपने ईमान पर कायम रहते हुए हिंदुस्तान की परंपराओं से जुड़े रह सकते हैं। और साथ मे समाजवाद के द्वारा ही वो मानवता की सेवा कर सकते है।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही उनमें देशभक्ति की जज़्बा जगा था। 1903 में अलीगढ़ से एक किताब ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ जारी की गयी। जो अंग्रेज़ी सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ थी। 1904 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। 1905 में उन्होंने बाल गंगाघर तिलक द्वारा चलाये गए स्वदेशी आंदोलन में भी हिस्सा लिया। स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने एक खद्दर भंडार भी खोला जो खूब चला। 1907 में उन्होंने अपनी किताब में ” मिस्र में ब्रितानियों की पॉलिसी” शीर्षक से लेख छापा। जो ब्रिटिश सरकार को बहुत खला और हसरत मोहानी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
महात्मा गांधी ने उनको महान बताया है और आजादी के आंदोलन में उनकी भागीदारी की अनेक मौके पर तारीफ भी किया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने उनकी रिहाई पर खुशी जाहिर करते हुए उन्हें पत्रकारिता जगत का सूरज कहा। 1919 के ख़िलाफ़त आंदोलन में उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। उनकी पत्नी निशातुन्निसा बेगम, जो हमेशा परदे में रहती थीं, ने भी अपने पति के साथ आज़ादी की लड़ाई में हमकदम हो जिम्मेदारी निभाई। मौलाना हसरत मोहानी आज़ादी की लड़ाई में इस तरह घुल मिल गये थे कि उनके लिये इस राह में मिलने वाले दुख-दर्द, राहत-खुशी एक जैसे थे।
वे हर तरह के हालात में अपने आप को खुश रखना जानते थे। उन्होंने बहुत थोड़ी सी आमदनी से,और कभी कभी बिना आमदनी के, गुज़ारा किया। उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि वे अंजाम की फिक्र किये बिना, जो सच समझते थे कह देते थे। सच की क़ीमत पर वह कोई समझौता नहीं करते थे।
1921 में “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” का नारा गढ़ने वाले हसरत मोहानी ही थे। इस नारे को बाद में भगत सिंह अपनाकर मोहानी साहब को मशहूर कर दिया। 1921में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आज भी जब कही गैर बराबरी और सत्ता के खिलाफ कोई विरोध या आंदोलन चलता है तो “इंक़लाब ज़िन्दाबाद” का नारा उसका खास हिस्सा होता है। हमारे देश की कोई भी सियासी पार्टी या कोई संगठन अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन करती है तो इस नारे का इस्तेमाल आन्दोलन में जान फूंक देता है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान यह नारा उस लड़ाई की जान हुआ करता था और जब भी, जहां भी यह नारा बुलन्द होता था आज़ादी के दीवानों में जोश भर देता था।
भारत की आज़ादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले हिन्दुस्तानी रहनुमाओं और मुजाहिदों की फेहरिस्त में मौलाना हसरत मोहानी का नाम सरे फेहरिस्त शामिल है। उन्होंने इंक़लाब ज़िन्दाबाद का नारा देने के अलावा ‘टोटल फ्रीडम’ यानि ‘पूर्ण स्वराज्य’ यानि भारत के लिये पूरी तरह से आज़ादी की मांग की हिमायत की थी। वे बालगंगाधर तिलक और डॉ भीमराव अंबेडकर के क़रीबी दोस्त थे। डॉ भीमराव आंबेडकर को सबसे अधिक सामाजिक सम्मान हसरत मोहानी ही देते थे यहां तक कि पवित्र रमज़ान में भी बाबा साहब मौलाना के मेहमान होते थे। 1946 में जब भारतीय संविधान सभा का गठन हुआ तो उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य से संविधान सभा का महत्वपूर्ण सदस्य चुना गया।संविधान निर्माण के बाद जब इस पर दस्तखत करने की बारी आई तो उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि यह मजदूरों और किसानों के हक़ की पूरी रहनुमाई नही करता। किसानों और मजदूरों के हित में यह फैसला लेने वाले वे अकेले सदस्य थे।
भारत विभाजन का उन्होंने विरोध किया और अपने भारतीय होने पर नाज़ किया।हिन्दू मुस्लिम एकता की विरासत को सँजोये इस महान व्यक्तित्व ने 13 मई 1951 को दुनिया को अलविदा कह दिया। आज हसरत मोहानी मौजूद नहीं है पर उनकी लिगेसी हमारे साथ है। उनकी रवायत को आगे बढ़ाना ही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।आइये हम आप और हम सब उनके रास्ते पर चलकर हिंदुस्तान की साझी विरासत को सुरक्षित रखें।
ग़म-ए-आरज़ू का ‘हसरत’ सबब और क्या बताऊँ,
मिरी हिम्मतों की पस्ती मिरे शौक़ की बुलंदी।
लेख की लेखिका वाराणसी की मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक चिन्तक शाहीन अंसारी है जो सेन्टर फ़ॉर हार्मोनी एंड पीस की हेतु भी कार्य करती है।