अंग्रेज़ो ने हिन्दू-मुस्लिम की साझा विरासत को भाषा के द्वारा तोड़ा – तसनीम सुहेल

मो0 कुमैल

कानपुर. वाङ्मय पत्रिका और विकास प्रकाशन कानपुर के संयुक्त व्याख्यान माला के अंतर्गत आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर तसनीम सुहेल ने अपने विचार “नवजागरण युगीन हिंदी-उर्दू उपन्यासों में साझी विरासत” के माध्यम से रखे जिसमें उन्होंने हिंदुस्तान की संस्कृति गंगा-जमुनी तहजीब रही है और इस साझी विरासत में एक ओर बढ़ावा दिया गया तो दूसरी ओर कट्टरवादियों से उसे टक्कर भी लेनी पड़ी। भारत में आरम्भ से ही अनेक जातियां आयी तो उन्होंने यहां के लोगों की एकता को खंडित करने के लिए धर्म के नाम पर समाज और भाषा दोनों को बांटने का प्रयत्न किया।

अंग्रेजों की भाषा नीति ने हिंदी को हिंदुओ से जोड़ दिया और उर्दू को मुसलमानों से। इस भाषा नीति ने हिंदुस्तान की साझा संस्कृति में सेंध मारने का काम किया और भाषा विवाद को जन्म दिया। 19वी शताब्दी में जो उर्दू हिंदी उपन्यास लिखे गए उसपर इसका प्रभाव पड़ा। इसीलिए इस युग के हिंदी उपन्यासकारों में कोई मुस्लिम उपन्यासकार नहीं दिखाई देता है जबकि अपभ्रंश से लेकर भक्तिकाल तक हिंदी में बेहतरीन काव्य करने वाले मुस्लिम रचनाकारों की पूरी श्रृंखला मौजूद है। इस युग के उर्दू उपन्यासकारो में पंडित रतन नाथ सरशार के रूप में एक ऐसा उपन्यासकार दिखाई देता है जिसने अपने उपन्यास ‘फसाना ए आज़ाद’ में लखनऊ के मुस्लिम समाज का सजीव चित्रण किया है जिसकी प्रशंसा करते हुए चकबस्त कहते है- काश, हिंदुस्तान के सारे हिन्दू मुसलमान पर इसी तरह एक दूसरे का रंग चढ़ जाता।

नवजागरण ने यूरोप को आधुनिकता प्रदान की तथा हिंदी साहित्य में भी नवजागरण का प्रादुर्भाव सम्भव हो पाया, आस्था के स्थान पर तर्क को प्रसस्त किया गया, इस आंदोलन में अरबी विचारकों ने भी अपना योगदान दिया यूनानी परंपरा का विकास हुआ।

अंग्रेज़ो ने आधुनिकता को तो बल दिया लेकिन साझी विरासत को तोड़ने की भी कोशिश की जिससे वो ‘फूट डालो राज करो’ कि नीति को अमलीजामा पहना सके। इस फेसबुक लाइव में बहुत से देश-विदेश के विद्वान, शोधार्थी एवं विद्यार्थी भी शामिल हुए

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