हिंदी-उर्दू साझी विरासत की प्राचीन संस्कृति है- आनन्द शुक्ल
मो0 कुमैल
वाङ्मय पत्रिका और विकास प्रकाशन के संयुक्त प्रयास में साझी विरासत की व्याख्यानमाला के अंतर्गत आज डॉ. आनंद शुक्ल ने “हिंदी-उर्दू कविता की साझी विरासत” जैसे महत्त्वपूर्ण और वर्तमान में प्रासंगिक विषय पर अपने विचार रखे जिसमें उन्होंने कुछ बिंदुओं पर दृष्टिपात किया – हिंदुस्तान के विशाल हिस्से में सदियों से भाषा साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में समन्वय की परंपरा रही है। मध्यकाल में अनेक बोलियों और भाषाओं के समाहार से विकसित हुई हिंदवी के साहित्य में भाषाओं संस्कृतियो और परम्पराओ के मिश्रण का जो अद्भुत निर्वाह मिलता है उसका प्रभाव हिंदी तथा उर्दू भाषा और साहित्य पर समान रूप से दिखाई देता है।
ब्रिटिश शासन काल द्वारा धार्मिक आधार पर आरंभ की गई सामुदायिक एवं भाषायी विभाजन की प्रकिया और इसके परिणाम स्वरूप स्वाधीनता आंदोलन के वक्त उभरी साम्प्रदायिक राजनीति ने हिंदी उर्दू के मध्य दीवार खड़ी करने का काम किया था। इस दौर में भाषा लिपि एवं सामुदायिक संबंध को लेकर चले वाद-विवाद के बावजूद साहित्यिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर दोनों भाषाओं के रचनाकारो के बीच संवाद की प्रकिया सतत चलती रही।
काव्य सृजन के क्षेत्र में दोनों भाषाओं के कवियों की भावभूमि और काव्य की नज़र से लगभग समान रही है। यह सही है कि हिंदी व उर्दू स्वतंत्र भाषाये है, उनका अपना साहित्य है, उनकी स्वतंत्र लिपियां हैं परंतु उनमें बहुत कुछ साझा भी है। जो हमें अपनी साझी संस्कृति और इस देश की महान परम्परा से जोड़े रखता है। लिपियाँ अलग होने पर भी समान भाव ही उत्सर्जित होते है। कहा भी जाता है उर्दू-हिंदी बहने है जिसको साझी विरासत के शायर, कलमकार बड़े बड़े मंचो पर उठाते भी है जिससे भाषाई कटुता की दीवार कमज़ोर तो होती है लेकिन कुछ राजनेताओं द्वारा इसपर राजनीति करके देश की भावुक जनता का मन तोड़ने का कार्य करते है फिर भी देश आगे बढ़ रहा है, हमें उम्मीद है भविष्य में भी यह साझी विरासत की लौ जलती रहेगी। आज का कवि शायर सामान्यजन की अनुभूतियो और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति, सामाजिक राजनीतिक यथार्थ के चित्रण अधिकाधिक मानवीय तथा बेहतर समाज की कामना और विकसित राष्ट्र की संकल्पना के लिए प्रतिबद्ध है। इस कार्यक्रम में देश-विदेश के अनेक विद्वान, बुद्धिजीवी, शोधार्थी एवं विद्यार्थी शामिल हुए।