कहाँ गुम हो गया इन आज़ादी के दीवानों का इतिहास ? – मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी
तारिक़ आज़मी
आज़ादी का इतिहास हम बचपन से पढ़ते आये है। काफी आज़ादी के परवानो के नाम हमको याद है। मगर गौर करे तो इतिहास ने भी काफी आज़ादी के दिवानो के साथ नाइंसाफियां किया है। काफी ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे है जिनका ज़िक्र तक इतिहास के पन्नो में तलाशने से नही मिलता है। हमारी इस सीरीज में हमारी कोशिश है ऐसे ही आज़ादी के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाले देश भक्त आज़ादी के परवानो का। हम अपने विभिन्न अंको में इनके बारे में आपको जानकारियाँ देते रहेगे। इसके पहले के अंक में अमर शहीद आज़ादी के परवाने 1857 में शहीद हुवे पत्रकार मौलाना मुहम्मद अली बाकिर के मुत्ताल्लिक।
जैसे मौलाना मुहम्मद अली बाकिर के साथ इतिहास ने इन्साफ नही किया उसी तरह से एक और आज़ादी के परवाने के साथ भी त्वारीख ने इन्साफ नही किया। हालात ऐसे है कि अमूमन इतिहास के जानकार इनका नाम भी नहीं जानते है। हम बात कर रहे है मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी के बारे में। मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान कार्यकर्ता व स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका जन्म 3 मार्च 1900 ई में बिहार राज्य के जिला मुज़फ्फरपुर में हुआ था। मौलाना ने अपनी शुरूआती तालीम घर पर ही हासिल की। फिर “मदरसा-ए-इमदादिया” दरभंगा में शिक्षा प्राप्त करने के लिये प्रवेश लिया जहा पर इन्होंने धार्मिक तालीम हासिल की। इसके बाद उन्होंने दरभंगा के नार्थ ब्रुक ज़िला स्कूल में दाखिला लिया। जहां से उन्हें अंग्रेजों का विरोध करने की वजह से अपने बड़े भाई मौलाना मंज़ूर अहमद अजाज़ी के साथ स्कूल से निकाल दिया गया।
इसके बाद उन्होंने पूसा हाईस्कूल समस्तीपुर में प्रवेश लिया। वहां से इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की पढ़ाई के लिए पटना के बीएन कालेज में प्रवेश लिया। पढ़ाई के दौरान ही इश्क-ए-वतन के में मशगुल ऐसा हुवे की आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। मौलाना राष्ट्रीय आंदोलन में जब कूदे तो महज़ उनकी उम्र 18 बरस ही रही। इसके आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुवे उन्होंने 1919 के दौरान खिलाफत आंदोलन से जुड़ गये, और मौलाना शौकत अली व मौलाना जौहर अली के सहयोगी बने गये।
इसी दरमियान 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में हिस्सा लेते हुए गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में सक्रिय रूप भागीदारी करने लगे। मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी ने 1924 से लेकर 1927 तक कलकत्ता में रहते हुए उन्होंने फैकल्टी ऑफ होम्योपैथी कालेज कलकत्ता से डाक्टर की डिग्री भी हासिल किया और आज़ादी की लड़ाई लगातार लड़ते रहे। 1928 में खिलाफत कमेटी का सेकेट्री रहते हुए साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया।
यही नहीं मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी का नाम उन स्वतंत्रता सेनानी में भी शामिल है जिन्होंने मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान के प्रस्ताव जो 1940 में लाया गया था का कड़ा विरोध किया था। इसी दरमियान 1941 में मुजफ्फरपुर ज़िले के शकरा थाने इलाके में मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन पर पुलिस द्वारा बर्बर लाठीचार्ज किया गया। जिसमें वह खुद काफी ज्यादा घायल हो गए। मगर आज़ादी के लड़ाई का परचम हाथो में लिए इसके बाद भी आगे ही बढ़ते रहे। 1942 में गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी ने 1947 में भारत के बंटवारे को गलत ठहराया और उसका जमकर विरोध किया। मौलाना द्वारा विरोध की इन्तहा यहाँ तक हुई कि मुस्लिम लीग वाले उनको अपना दुश्मन तक मानने लगे।
आज़ाद भारत में 1957 के बिहार विधानसभा चुनावों में अपने भाई मंज़ूर अहसन अजाज़ी का उन्होंने चुनाव प्रचार किया। 1960 में मौलाना ने मुज़फ्फरपुर के ऊर्दू सम्मेलन की अध्यक्षता किया। अपने राजनैतिक कदम के तहत 1962 में मौलाना ने मुज़फ्फरपुर सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा पर वह चुनाव हार गए। मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। उन्होंने कभी कोई ऐसा कदम नहीं उठाया जिससे किसी दूसरे समाज को तकलीफ़ हो। उन्होंने ज़िन्दगी भर ऊर्दू भाषा पर अधिक बल दिया। 26 सितंबर 1966 को उनका अचानक दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।
एक आज़ादी का परवाना हमेशा के लिए सो चूका था। मौलाना मग़फुर अहमद अजाज़ी ने अपने आखरी लम्हों तक देश में गंगा जमुनी तहजीब को कायम रखने के लिए जहा मेहनत किया। वही उन्होंने उर्दू तहजीब की भी काफी खिदमत किया। ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को इतिहास ने वो जगह नही दिया, जिसकी उनको दरकार थी। इतिहास ने कही न कही उनके साथ एक नाइंसाफी ही किया है। आइये इस स्वतंत्रता दिवस पर इस आज़ादी के परवाने को सलाम पेश करे।