“मुर्री बंद” – मंदी की मार झेलते भुखमरी के कगार पर पहुचे हैण्ड इम्ब्रायडरी के हस्त शिल्पी, सुने कारर्चोप को देख भर आते है अब इन कामगारों के आखो में आंसू
तारिक़ आज़मी
वाराणसी। अपने समाचार के शुरुआत में ही आपको बता देते है कि बुनकर बिरादरान का मायने किसी धर्म विशेष से नही होता है। सभी धर्मो के अनुयायी बिनकारी से अपनी आजीविका चलाते है। गंगा जमुनी तहजीब के इस मरकज़ को तानी बाने के रिश्ते से जोड़ा जाता है। अपनी मांगो के सिलसिले में वाराणसी के बुनकर समाज द्वारा “मुर्री बन्द” का आह्वाहन किया गया है। अभी तक के इतिहास में प्रदेश व्यापी “मुर्री बंद” शायद पहली बार हुआ हो। ज़बरदस्त तरीके की बंदी चल रही है।
इन सबके बीच एक और मजदूर तबका जो आपके कपड़ो को सजा सवार कर खुबसूरत बनता है। खुद की कलाकारी को आपके कपड़ो पर उकेर कर आपकी सुन्दरता को चार चाँद लगाता है। उसको हैण्ड इम्ब्रोइडरी के नाम से पुकारा जाता है। हैण्ड एम्ब्रोईडरी के कारीगरों पर मंदी की मार आज से नहीं लगभग एक वर्ष से अधिक समय से चल रही है। थोडा काम शुरू हुआ था कि लॉक डाउन के कारण इस काम को भी ग्रहण लग गया। रखी हुई पूंजी खाते हुवे इस कारोबार से जुड़े लोग अब भुखमरी के कगार पर पहुच चुके है।
वैसे तो हैण्ड एम्ब्रोईडरी के कारीगरों की भी गिनती हस्तकला के तौर पर होती है। सभी समाज के लिए आने वाली स्कीमो के बीच ये कारीगरी वंचित रह गई। इसका एक बड़ा कारण ये भी है कि इन कामगारों की यूनियन नही है। जो कभी हुआ भी करती थी तो वह भी अब लगभग खत्म के कगार पर जा चुकी है। नेतृत्व विहीन यह कामगार वर्ग आज अपनी आर्थिक बदहाली के कगार पर पहुच चूका है। कारचोप साल गुजरने को आये मगर खामोश ही है। उनके हाथो में आरी अथवा फैसी की सुई भी अब अपरिचित सी दिखाई देती है। बेकारी की मार झेलते इन कामगारों की व्यथा सुनने वाला कोई नही है।
किसी सरकारी मदद के बगैर खुद की दाल रोटी चलाने के लिए कभी काफी अच्छा कारोबार आरी, मुकुट तथा फैंसी का काम 10-12 घंटे काम के बाद अच्छी खासी मजदूरी मिल जाती थी। काम में कमी और कम्पटीशन ने इसमें पहले मजदूरी कम किया और अब हालात कुछ ऐसे है कि कारीगर साल गुजरने को आया बिना काम के बैठे हुवे है। सरकार के तरफ उम्मीद की निगाहों से देखने वाले कारीगरों की आँखे उनके सुने कार्चोप को देख कर नम हो जाती है। बेकारी की मार ने दाल रोटी तक पर ग्रहण लगा रखा है।
गौरतलब हो कि हैण्ड इम्ब्रोईडरी के इस काम में पुरुषो के साथ साथ महिलाये भी काम करती है। गृह उद्योग के तर्ज पर घरो में महिलाए खुद के घरेलु कामो के अलावा खाली वक्त में इस काम से रोज़ की 2-3 सौ की मजदूरी कर लेती थी। मगर कभी भी इस कारीगरी को घरेलु अथवा कुटीर उद्योग के तरह से सरकारी मदद नही मिली। इनके लिए बिजली भी आम दरो के अनुसार रहती है। उलटे अगर कारखाना घर के बाहरी कमरे में लगा हो तो एलएमवी-2 के दर से बिजली का भुगतान करना पड़ता है। सरकारे आती रही और जाती रही। मगर इस कारोबार को किसी भी सरकार ने संरक्षण नही दिया। आज जब मंदी की मार से यह वर्ग बेहाल है तो उम्मीद की निगाहों से सरकार की तरफ देखता है।
इस सम्बन्ध में कामगारों के समस्याओं पर मुखर होकर अपने विचार रखने वाले इतिहासकार डॉ मोहम्मद आरिफ से हमारी बातचीत हुई। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि कामगारों की एक बड़ी जमात हैण्ड एम्ब्रोइदरी के कारोबार में लगी हुई है। किसी धर्म अथवा जात पात की दहलीज़ से अलग हटकर ये रोटी की समस्या के निस्तारण के लिए एक प्रकार का कुटीर उद्योग है। एक बड़ा तबका इस काम से जुडा हुआ है। इस तबके का सियासी फायदा तो सभी राजनैतिक दल उठाना चाहते है।
उन्होंने कहा कि मगर किसी ने इनकी समस्याओ के सम्बन्ध में कभी कोई विचार नही किया। कभी भी इस उद्योग अथवा कामगारों को सरकारी मदद नही मिली। मगर सियासत के मद्देनज़र इनका वोट सबको चाहिए होता है। बड़ी बड़ी घोषणाये तो काफी सुनी गई है। मगर ज़मीनी स्तर पर काम की अगर बात करे तो शुन्य ही रहा है। अब जब ये कामगार मंदी की मार से भुखमरी के कगार पर पहुच चुके है तो इनको सरकार मदद की दरकार है। हम आशा ही सिर्फ कर सकते है कि इस नेतृत्व विहीन वर्ग पर सरकार अपने नजर-ए-करम कर दे।