हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास- तारिक़ आज़मी की कलम से हिंदी दिवस पर विशेष

पत्रकारिता (मीडिया) का प्रभाव समाज पर लगातार बढ़ रहा है। इसके बावजूद यह पेशा अब संकटों से घिरकर लगातार असुरक्षित हो गया है। मीडिया की चमक दमक से मुग्ध होकर लड़के लड़कियों की फौज इसमें आने के लिए आतुर है। बिना किसी तैयारी के ज्यादातर नवांकुर पत्रकार अपने आर्थिक भविष्य का मूल्याकंन नहीं कर पाते। आइये हिंदी पत्रकारिता का इतिहास समझने की कोशिश करते है।

भारतीय पत्रकारिता की जननी बंगाल की धरती ही है। हिंदी पत्रकारिता का जन्म और विकास भी बंगाल की धरती में ही हुआ। भारतीय भाषाओं में पत्रों के प्रकाशन होने के साथ ही भारत में पत्रकारिता की नींव सुदृढ़ बनी थी। इसी बीच हिंदी पत्रकारिता का भी उदय हुआ। यह उल्लेखनीय बात है कि हिंदी पत्रकारिता का उद्गम स्थान बंगाली भाषा-भाषी प्रदेश (कलकत्ता) रहा। भारत में समाचार पत्रों के प्रकाशन का श्रीगणेश अभिव्यक्ति की आज़ादी की उमंगवाले विदेशी उदारवादियों ने किया। इसके पूर्व ही पश्चिमी देशों तथा यूरोपीय देशों में पत्रकारिता की महत्ता को स्वीकारा गया था। हिक्की या बंकिघम के आरंभिक साहसपूर्ण प्रयासों से भारत में पत्रकारिता की नींव पड़ी थी। वैसे वहाँ शिलालेखों, मौखिक आदि रूपों में सूचना संप्रेषण का दौर बहुत पहले शुरू हुआ था, पर आधुनिक अर्थों में पत्रकारिता का उदय औपनिवेशिक शासन के दौरान ही हुआ। अंग्रेज़ी शिक्षा की पृष्ठभूमि पर ही जेम्स अगस्टस हिकी के आरंभिक प्रयास ‘हिकीज़ बंगाल गज़ट’ अथवा ‘कलकत्ता जेनरल अडवर्टैज़र’ के रूप में फलीभूत हुआ था। देशी पत्रकारिता के जनक राजा राममोहन राय माने जाते हैं। भारतीय विचारधारा और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ प्राचीन-नवीन सम्मिश्रण के एक विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में उभरकर उन्होंने एक स्वस्थ परंपरा का सूत्रपात किया। उस समय तक के भारतीय परिवेश में आधुनिक आध्यात्मिकता का स्वर भरने वाले रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री अरविंद आदि मनीषियों से भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में जनजागृति और संप्रेषण माध्यम रूपी पत्रकारिता का उदय हुआ था ।
अंग्रज़ों की स्वार्थपूर्ण शासन के दौर में ही भारतीय भाषा पत्रकारिता की नींव भी पड़ी थी। जन चेतना का संघर्षपूर्ण स्वर उभारने के लक्ष्य से ही पत्रकारिता का उदय हुआ। पत्रकारिता के उद्भव की स्थितियों एवं कारणों का वर्णन करते हुए डॉ. लक्ष्मीकांत पांडेय ने लिखा है – “पत्रकारिता किसी भाषा एवं साहित्य की ऐसी इंद्रधनुषी विद्या है, जिसमें नाना रंगों का प्रयोग होने पर भी सामरस्य बना रहता है । पत्रकारिता, जहाँ एक ओर समाज के प्रत्येक स्पंदन की माप है, वहीं विकृतियों की प्रस्तोता, आदर्श एवं सुधार के लिए सहज उपचार । पत्रकारिता जहाँ किसी समाज की जागृति का पर्याय है, वहीं उसमें उठ रही ज्वालामुखियों का अविरल प्रवाह उसकी चेतना का प्रतीक भी है। पत्रकारिता एक ओर वैचारिक चिंतन का विराट फलक है, तो दूसरी ओर भावाकुलता एवं मानवीय संवेदना का अनाविल स्रोत। पत्रकारिता जनता एवं सत्ता के मध्य यदि सेतु है तो सत्ता के लिए अग्नि शिखा और जनता के लिए संजीवनी। अतः स्वाभाविक है कि पत्रकारिता का उदय उन्हीं परिस्थितियों में होता है, जब सत्ता एवं जनता के मध्य संवाद की स्थिति नहीं रहती या फिर जब जनता अंधेरे में और सत्ता बहरेपन के अभिनय में लीन रहती है ।”

भारत में अंग्रेज़ो की दमनात्मक निति के विरुद्ध आवाज के रूप में स्वाधीनता की प्रबल उमंग ने पत्रकारिता की नींव डाली थी। उसके फलीभूत होने के साथ स्वदेशी भावना का अंकुर भी उगने लगा। कलकत्ता में भारतीय भाषा पत्रकारिता के उदय से इन भावनाओं को उपयुक्त आधार मिला था। इस परंपरा में कलकत्ता के हिंदी भाषियों के हृदय में भी पत्रकारिता की उमंगे उगने लगीं। अपनी भाषा के प्रति अनुराग और जनजागृति लाने के महत्वकांक्षी पं. जुगल किशोर शुक्ल के साहसपूर्ण आरंभिक प्रयासों से हिंदी पत्रकारिता की नींव पड़ी। कलकत्ता ( वर्तमान कोलकोता) के कोलू टोला नामक महल्ले के 37 नंबर आमड़तल्ला गली से जुगल किशोर शुक्ल ने सन् 1826 ई. में उदंतमार्तंड नामक एर हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया। यहाँ यह भी विवेचनीय बात है कि ‘उदंत मार्तंड’ से पहले भी हिंदी पत्रों के प्रकाशन अस्तित्व में आया था और एक पत्रिका के कुछ पन्नों पर हिंदी को स्थान दिया गया था। “समाचार दर्पण” नामक इस पत्रिका का प्रकाशन भी बंगभूमि से 1819 में हुवा था।
30 मई,1826 हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय तिथि है जिस दिन सर्वथा मौलिक प्रथम हिंदी पत्र के रूप में ‘उदंत मार्तंड’ का उदय हुआ था। इसके संपादक और प्रकाशक कानपुर के जुगल किशोर ही थे। पंडित युगल किशोर शुक्ला जी कानपुर के चमनगंज के निकट प्रेम नगर के रहने वाले थे और कोलकाता ( तत्कालीन कलकत्ता) के दीवानी न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस करते थे। 
साप्ताहिक ‘उदंत मार्तांड’ के मुख्य पृष्ठ पर शीर्षक के नीच जो संस्कृत की पंक्तियाँ छपी रहती थीं उनमें प्रकाशकीय पावन लक्ष्य निहित था । पंक्तियाँ यों थीं –
“दिवा कांत कांति विनाध्वांदमंतं
न चाप्नोति तद्वज्जागत्यज्ञ लोकः ।
समाचार सेवामृते ज्ञत्वमाप्तां
न शक्नोति तस्मात्करोनीति यत्नं ।।”

देश और हिंदी प्रेम की महत्वकांक्षा और ऊँचे आदर्श से पं. जुगल किशोर ने ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन आरंभ किया था, पर सरकारी सहयोग के अभाव में, ग्राहकों की कमी आदि प्रतिकूल परिस्थितियों में 4 दिसंबर, 1827 को ही लगभग डेढ़ साल की आयु में हिंदी का प्रथम पत्र का अंत हो गया। समाचार पत्र को गैर हिंदी भाषी क्षेत्र होने की वजह से पाठक नहीं मिले और सरकार की दमनात्मक निति ने डाक का उस समय जो पंजीयन होता वह नहीं होने दिया था। 
जिस संपादकीय उद्घोष के साथ समाप्त हुआ, वह आज भी हिंदी पत्रकारिता के संघर्षपूर्ण अस्तित्व के प्रतीकाक्षरों की पंक्तियों के रूप में उल्लेखनीय हैं–
“आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तंड उदंत ।
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अंत ।।”

पं. जुगल किशोर शुक्ल ने अपनी आंतरिक व्यथा को समेट कर उक्त पंक्तियों की अभिव्यक्ति दी थी। इसके बाद कई प्रयासों से धीरे-धीरे हिंदी पत्रों का प्रकाशन-विकास होता रहा। परंतु पंडित युगल किशोर शुक्ला ने हार न मानी और वर्ष 1850 में उन्होंने पुनः हिंदी की पत्रिका शुरू किया जिसका नाम “सामदंड मार्तण्ड” था। यह लंबे समय तक हिंदी पत्रकारिता को जीवित रखे था और इसका प्रकाशन 1919 तक हुवा। इसी परंपरा में जून, 1854 में कलकत्ते से ही श्याम सुंदर सेन नामक बंगाली सज्जन के संपादन में हिंदी का प्रथम दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ था। हिंदी पत्रकारिता की जन्मभूमि होने का गौरव-चिह्न कलकत्ते के मुकुटमणि के रूप में सदा प्रेरणा की आभा देते हुए हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय है। 
कलकत्ता से बाहर हिंदी प्रदेश में हिंदी पत्रकारिता की शुरुवात का श्रेय वाराणसी (काशी) को जाता है। वाराणसी ( काशी) तत्कालीन बनारस से भारत के हिंदी भाषी क्षेत्र का पहला हिंदी अख़बार निकलने वाला हिंदी पत्र ‘बनारस अख़बार’ था, जिसका प्रकाशन 1845 ई. में काशी में आरंभ हुआ था । जिसने हिंदी पत्रकारिता के रूप में 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था।

आरंभिक हिंदी-पत्रकारिता के आदि उन्नायकों का आदर्श बड़ा था, किंतु साधन-शक्ति सीमित थी। वे नई सभ्यता के संपर्क में आ चुके थे और अपने देश तथा समाज के लोगों को नवीनता से संपृक्त करने की आकुल आकांक्षा रखते थे । उन्हें न तो सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन प्राप्त था और न तो हिंदी-समाज का सक्रिय सहयोग ही सुलभ था। प्रचार-प्रसार के साधन अविकसित थे। संपादक का दायित्व ही बहुत बड़ा था क्योंकि प्रकाशन-संबंधी सभी दायित्व उसी को वहन करना पड़ता था। हिंदी में अभी समाचार पत्रों के लिए स्वागत भूमि नहीं तैयार हुई थी। इसलिए इन्हें हर क़दम पर प्रतिकूलता से जूझना पड़ता था और प्रगति के प्रत्येक अगले चरण पर अवरोध का मुक़ाबला करना पड़ता था। तथापि इनकी निष्ठा बड़ी बलवती थी। साधनों की न्यूनता से इनकी निष्ठा सदैव अप्रभावित रही। आर्थिक कठिनाइयों के कारण हिंदी के आदि पत्रकार पं. जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन बंद कर दिया था किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि आर्थिक कठिनाइयों ने उनकी निष्ठा को ही खंडित कर दिया था । यदि उनकी निष्ठा टूट गई होती तो कदाचित् पुनः पत्र-प्रकाशन का साहस न करते। हम जानते हैं कि पं. जुगल किशोर शुक्ल ने 1850 में पुनः ‘सामदंत मार्तंड’ नाम का एक पत्र प्रकाशित किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रतिकूल परिस्थिति से लड़ने का उनमें अदम्य उत्साह था। उस युग के पत्रकारों की यह एक सामान्य विशेषता थी। युगीन-चेतना के प्रति ये पत्र सचेत थे और हिंदी-समाज तथा युगीन अभिज्ञता के बीच सेतु का काम कर रहे थे।

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2 thoughts on “हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास- तारिक़ आज़मी की कलम से हिंदी दिवस पर विशेष”

  1. @@उदन्त मार्तण्ड और हिंदी पत्रकारिता दिवस@@

    जब हिंदी पत्रकारिता की बात होती है, दिमाग में तुरन्त युगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रकाशित उदंत मार्तण्ड पत्र, उसकी भाषा, उसका उद्देश्य इत्यादि महसूस होने लगते है।
    हम सभी को ज्ञात होना चाहिए कि शुक्ल जी ने इस भारत भाषी पत्र के प्रथम अंक को आद्य पत्रकार नारद के जयंती पर प्रकाशित किया था। शुक्ल जी इस पत्र को नारद को समर्पित किये थे।
    वह स्वर्ण दिन था – ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष द्वितीया
    इस दिन पत्र को प्रकाशित करने का यही उद्देश्य था कि आने वाले पीढ़ी नारदीय पत्रकारिता पर ध्यान दे जिसमें सत्यम् शिवम् सुन्दरम् हो। शुक्ल जी के लिए विशेष दिन ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष द्वितीया था, ना कि 30 मई ।
    आज के नई पीढ़ी के पत्रकार युगल किशोर को याद तो करते है, उनके कार्यों का महिमंडन करते है लेकिन उस दिन नही जिस दिन करना चाहिए।
    शायद यह अंग्रेजियत का प्रभाव हैं। आप खुद सोचें कि उदन्त मार्तण्ड और युगल किशोर के साथ हम कैसा वर्ताव कर रहे है?
    अगर आज युगल किशोर होते, अपने कार्यों और उदन्त मार्तण्ड के उद्देश्य में अपने आप को असफल महसूस करते।
    अगर सच में मार्तण्ड, किशोर,हिंदी एवं पत्रकारिता के लिए हृदय में जगह है तो उदन्त मार्तण्ड और किशोर शुक्ल जी को समझना चाहिए।
    इस बात को समझने की जरूरत है कि युगल किशोर जी ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष द्वितीया को ध्यान में रख कर इस पत्र का प्रकाशन किये थे न कि 30 मई।

    -आज ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष नवमी तिथि है। यानि सात दिन पहले वह स्वर्ण दिन बीत गया। खैर कोई बात नही, अगले वर्ष मनाया जायेगा।
    याद रहेगा न आप लोगों को ?

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