तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – जाने काहे होई गवा कोईला बजार यानी नलवा चौराहा पे ढिशुम ढिशुम
तारिक आज़मी
वईसे आप सब लोग “जैक एंड जिल” वाली कविता बचपन में पढ़े होंगे। अब हम सोचते है कि यदि लेखक बनारस का रहता तो कईसे ई कविता को लिखता। अंग्रेज रहा तो अंग्रेजी में लिखा अगर बनारसी होता तो बनारसी में लिखता। तो शायद कविता कुछ इस प्रकार से होती कि “जैकवा और जिलवा, गए ऊपर हिलवा, पनिया भरे के वास्ते पनिया भरे के वास्ते, जैकवा गिर गया, सरवा फट गवा, जिलवा आव लड़खड़ावत सारे रास्ते।” वैसे आज हमको कविता सुनाने का कोई मन नही है। बस ईसहि सोचा तनिक बतिया लिया जाए। आपहो के बतियाने का मन कर रहा होगा तो सोचा अईसही बतियावा जावे।
तो बतिया का शुरूआत कर दिया है। अब ई सुरुआत के बाद हममे लगता है कि पूरी विस्तार से बतियावा जाए। अब कल्लन मिया कहेंन कि बतियाते ढेर, मखंचू चा भी यही कहेत रहेंन तो हम इनका बात न सुने। वैसे खरपतुआ के बाऊ भी बतियावेतेंन बढ़िया। ईहे बतियावे की अदा के वजह से बतिया के लोग समझतेंन ढेर। अब बतिया अईसन है कि मंगलवार के रतिया में जब कुल मिला मोहल्ला के होली खेलत रहेन ता तब्बे रजा कोईला बजार चौराहे के लग्गे दू मिल्ला के बीच ढिशुम ढिशुम होई गया। ओके बाद ढिशुम ढिशुम बदल गवा और ले धपाक दे धपाक हॉवे लगा।
तब्बे पुलिस के देख सभन्ने फुर्र होई गएँ अऊर कुल शांति होई गवा। अब हमहू सोचे लगे कि ई कुल एक्के साथ रहेतेंन काहे ढिशुम ढिशुम कर लिहिन। एक मिला से पूछ लिया तो ऊ बताईस कि कल्ले से भवा रहा आज फिर चढ़ गई तो दुबारा होई गवा। अमा चढ़ गई मतलब समझेतो न। वही मेया जवाहिर सेठ किहन का पानी। खैर छोडो मेया ओके, कल काहे भवा रहा ओके सुनिहो तो गजबे का बात पता लगिहे। भवा का रहा गुरु कि कल कोईला बजार चौराहावा जेके नलवा चौराहा कहा जावेते उहा मटकी फोड़े का कार्यक्रम रहा। पाहिले नाई होवेत रहा अब होवेते।
तो मटकी फोड़े बदे एक मिला चढ़ा और धम्म से गिर गवा। अब जईसही गिरा उ तो उका कपार फट गया। दऊदे दऊडे ऊ अरुण किहा गवा और अरुण ओके सर पर पट्टी रख दिहिन। बात ख़तम हो गयी रही। मगर ओका कहेनाम रहा कि ओका पैर केहू मिला खीच दिहिन रहा तो ऊ गिर गवा। मेया अईसा मजाक नाई करे के चाहेत रहा न। बात गलत है। तनिक से मजाक में सुजाक हो जाता तो। मगर जब आज ओके दुबारा चढ़ी तो ओके ऊ वाला गिरे का सीन याद आ गवा और जेके ऊपर ओके शक रहा ओके साथ गल्ली में होई गवा ढिशुम ढिशुम।
मगर इम्मे भी बात है मेया पहिले समझो। बात ई है कि सोनुआ कल होली के बेला उहा गल्ली ने पास खड़ा होक देखत रहा। ऊ बताईस कि नाही ओका पैर वैर कोई नाई खिचिस। भवा ई कि डाक्टर अग्रवाल जिम्मे बईठेत रहेन उकी छतिया से एक ठे डोरा बनाहना रहा। ई रजा उ डोरा से सुईईईईई से करके सरकत सरकत मटकी फोड़े बदे जात रहेन तब्बे हथवा फिसल गवा और छपाक से निच्चऊ आ गयेन। बस कपार फुट गवा। अब समझे काहे तुहे जैकवा और जिलवा वाली कविता सुनावा। देखो बतिया हम कर लिया और बतिया में केहू कमी नाई है। ई लिखवा में जो कुछो लिखाना है ऊ एक गो सत्य घटना पर आधारित है एक केहू जिन्दा मुर्दा से मतलब नाई है। बस नाम छुपावे बदे अईसही नाम जोड़ दिया है। अब देखेगे कि मामला ठंडा हो गवा कि और अभी किच्चाहिन् बाकी है। जुड़े राहियो हमरे साथ हम दिखाइते खबर जअउने बख्त के रफ़्तार में खो जवेती। तो भैया अब बतियाना नाही है। बतिया खतम……….!
नोट – यह लेख मास्टर अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब जिन्होंने सिखाया कि “विरासत अगर संघर्ष की हो तो उसको अगली पीढी को सौप देना चाहिए” की पुस्तक “झिनीझिनी सी बिनी चदरिया” से प्रेरित है. लेख में बुनकर समाज के भाषा शैली का प्रयोग करने का प्रयास किया गया है. इसका वास्तविकता से कोई लेना देना नही है. लेख के सभी नाम काल्पनिक है और अमूमन वो नाम रखे गए है जो आपको अपने आसपास अक्सर दिखाई दे जायेगे.