आइरा- प्रथम वर्षगांठ पर विशेष,तारिक़ आज़मी आज़मी द्वारा लिखित-दिल दिया है जा भी देंगे

                          तारिक़ आज़मी की कलम से :-

आज आल इंडिया रिपोर्टर्स एसोसिएशन (आइरा) की प्रथम वर्षगाँठ है। एक साल हो गया हमारा जन्म हुवे। ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो जब हम पैदा हुवे और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे। वो तो कल की ही बात लगती है जब रातो की जाग जाग कर सभी सोशल मीडिया पर गतिविधियों पर नज़र रखना। शायद वो कल की ही बात थी जब हम अस्तित्व की जंग केवल इसलिए लड़ने को विवश थे क्योकि कुछ लोग जो पत्रकारो के नाम पर अपनी दुकान चला रहे थे उनकी दुकान बंद होने वाली थी। आज ऐसा हुवा भी।
वो कल की ही तो बात है जब सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक इस लड़ाई को लड़ना पड़ा कि पत्रकार केवल पत्रकार होता है कोई छोटा बड़ा नहीं होता है। वो कल की ही बात तो लगती है जब 3 रातो को जाग कर दिन भर मेहनत करके एक पत्रकार की लड़ाई हम लड़ रहे थे वो भी पुरे सिस्टम के खिलाफ।
हा शायद कल की ही बात लगती है जब हम 72 घंटे की लगातार मेहनत के बाद सिर्फ आँख लगी थी और उतने लम्हों में ही पत्रकार का अहित हो गया। खूब आंसू बहे थे हम लोगो के जब केवल एक घंटे की उस नींद के वजह से हम चूक गए। मगर हार नहीं मानी अधिकार दिलवा कर ही माँग गया। हा उसी कल तो हम लोगो में एक फैसला किया कि हममें से एक हमेशा जागता रहेगा। ड्यूटी तय हुई। रात 4 बजे तक मैं और पुनीत भाई फिर ज़की साहेब और फरीद साहेब फिर जब ज़माना जाग जाये तब तक ऐसे ही चलता रहे।
ज़माना जाग गया। 
वो भी एक कल ही था जब कानपुर की सुरज़मींन पर पुनीत भाई की नीतियों के तहत पत्रकारो की एक जंग का एलान हुआ और 64 साल का रिकार्ड टूट गया। 64 सालो के इतिहास में पहली बार ऐसा हुवा कि पत्रकारो का सभी संगठन एक साथ सड़क पर आया। हा वो कल का ही सितम्बर लगता है जब कानपुर के सिर्ज़मीन से पत्रकारो की एक आवाज़ बुलंद हुई और उस पर देश के पत्रकारो ने लब्बैक कहा और दुनिया ने हमारी ताकत का अहसास किया।
हिला था राजनैतिक गलियारा जब हम एक कद्दावर नेता के खिलाफ धरने पर बैठ कर साबित किया था कि पत्रकार किसी से डरता नहीं है। 
एक कल था जब पूर्वांचल की सरज़मीं पर एक कद्दावर सांसद, एक दबंग विधायक, एक चेयरमैन और उनकी ज़मीन, उनका आसमान उनके लोग उनका साम्राज्य। सेंध नहीं इसको एक तगड़ा जवाब कहा जायेगा जब पत्रकरो की ज़बान मेरी आवाज़ से निकली और उस कल में उनके पसीने छुड़वा दिए।
वो भी एक कल सा ही था जब राजस्थान में केवल मिनटो में गिनती चली और पत्रकार से अभद्रता करने वाले की वर्दी उतर गई। उस एक कल की याद आज भी ज़ेहन में ताज़ा है जब जगेंद्र की लड़ाई में हम पहले संगठन थे जो ज़मीनी लड़ाई लड़ने उतर कर आये। हम उस कल में भी पहले ही थे जब संजीव बालियान के लिए सड़को पर उतर कर अपना विरोध जताया।
 ये भी तो कल की ही बात महसूस होती है जब औरैया के पत्रकारो की लड़ाई हमने लड़ी।
आज इसी लड़ते हुवे एक साल बीत गया। अपनों का ऐसा साथ मिला कि वक्त का पता ही न चला कब बीत गया और हम इतने मज़बूत हुवे कि हमारी संख्या दस हज़ार पहुच गई है। हम कल भी थे हम आज भी है हम कल भी रहेगे।
तो क्या हुवा अगर मैं मर भी जाऊ मेरा लहू भी इस जंग में अपनी इबारत लिख देगा।
 मैं तो एक कलम का अदना सा सिपाही हु। पत्रकारिता मेरा मज़हब, सच्ची खबर मेरा ईमान और कलम मेरी जाति है। मेरी बिरादरी ही है जो कहलाती है पत्रकार। अगर मेरी बिरादरी को उसका हक़ मेरे लहू के बहा दिए जाने से मिल सकता है, तो आवाज़ दे रहा हु ए गोलियों, ए तीर, ए तलवार आओ और चीर लो मेरा सीना और निकाल लो मेरे जिस्म का हर कतरा खून जिससे सीच दो मेरी कौम के मुस्तकबिल को और लिख दो इंकलाब। अगर एक तारिक आज़मी का लहू बह जाने से पत्रकारो का मुस्तल्बिल सुधरता है तो कीमत बहुत सस्ती है मेरे दोस्त।
एक बार फिर से आप सभी को आइरा के स्थापना दिवस की बधाई।
जय नारद

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