तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ : हमारी आस्था, नगर निगम की लापरवाही और मैली होती गंगा
तारिक़ आज़मी
पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी लोलार्क कुंड स्नान नहीं हुआ। इस बार कोरोना काल न होने के कारण आम जनता ये मान कर चल रही थी कि लोलार्क कुंड स्नान होगा। मगर लोलार्क कुंड स्नान की अनुमति न मिलने के कारण हम आस्था से सराबोर होकर अस्सी घाट पर स्नान करने गए। स्नान करने वाली महिलाओं ने अपने आस्था के अनुरूप वस्त्र, चूड़ी, चप्पल और पहने हुए कपडे सहित एक सब्जी और एक फल अर्पित किया।
आहिल्या बाई द्वारा जीर्णोद्धार करवाए गए। लोलार्क कुंड से न केवल अपने शहर बनारस अथवा उत्तर प्रदेश बल्कि कई राज्यों की आस्था जुडी हुई है। ऐसा माना जाता है कि नि:संतान स्त्री यदि इस कुंड में स्नान करती है तो उसे संतान प्राप्ति होती है। ऐसी आस्था है कि लोलार्क कुंड में आकर नि:संतान स्त्रीये इस कुंड में स्नान के उपरान्त अपने पहने हुए वस्त्र, चूड़ी, चप्पल इत्यादि सहित एक सब्जी और एक फल का यहां दान करती है। इस बार लोलार्क कुंड स्नान पिछले वर्ष की भांति कोरोना संक्रमण के कारण नहीं हो पाया। आस्थावानो ने लोलार्क कुंड की जगह गंगा में डुबकी लगाकर अपनी मन्नतें मांगी। आस्था के अनुरूप चप्पल, चूड़ी, कपडे, सब्जी, फल इत्यादि का गंगा तट पर ही अर्पण किया।
सुबह ही सुबह हमारे काका गाना गुनगुनाते हुए मेरे कमरे में आ धमके। हाथो में चाय की कप लिए काका अपने मामूर से उलट बड़ी मुहब्बत से मेरा सर सहला कर जगा बैठे। सुबह सुबह काका का कमरे में आना किसी नौजवान युवक के सपने में ड्रेकुला का आना एक जैसा ही लगता है। हम तो एकदम सकपका ही गये थे और घुरमुसा के काका को कनखी से देखते हुए चाय की चुस्की ले रहे थे। एक तरफ काका के होंठो से मेरे रश्क-ए-कमर निकल रहा था, वही हम अपकमिंग मुसीबत से निपटने के लिए अपनी कमर कस रहे थे। चाय ख़त्म हो चुकी थी, मगर हम चाय की कप को होंठो से फर्जीये का लगाये हुए थे। धीरे से उठ कर हम बाथरूम में घुस गये। शावर के नीचे खड़े होकर पानी खोपड़ी पर गिराते हुए खाली यही सोच रहे थे कि आखिर काका कौन सी नई मुसीबत देने वाले है गुरु। हमारा बस चलता तो हम बाथरूम के बाहर ही नहीं निकलते। मगर मुश्किल ये थी कि काका कमरे में दम्मादार थे।
आखिर कपडा-वपड़ा पहन कर अनदेखे कमर बंद से कमर कस कर के काका के सामने हम निरीह प्राणी जैसा बैठ गये और काका के अगले आदेश का इंतज़ार करने लग गये। काका ने अपने मुंह में मेरा ही रजनीगंधा डालते हुए कहा कि “ए बबुवा चल अस्सी घाट टहल कर आया जाए।” काका के मुंह से ये शब्द एकदम शहद की तरीके से टपके थे। मेरा सारा डर काफूर होकर काका पर स्नेह की बौछार करने लग गया। कुछ काम तो मुझे भी अस्सी की तरफ था, सोचा चलो एक पंथ दो काज हो जाते है। तमीज़ की कमीज़ पहने हुए हमने अपने लख्त-ए-जिगर, नूर-ए-नज़र, टेढ़ा है पर मेरा है, जैसे ए0 जावेद को फोन करके अस्सी पहुँचने को कहा, और लफ्ज़ो के फलक पर परवाज़ करने को पर निकाल चुकी शाहीन से ऑफिस के काम सहेजे और खुद काका को लेकर अपनी धन्नो (मोटरसाईकिल) से अस्सी घाट पहुंच गये। अस्सी चौकी पर फ्री की पार्किंग में अपनी बाइक खड़ी की, और काका के साथ अस्सी घाट की सीड़ियों पर बैठ कर सुबह की दूसरी चाय का लुत्फ़ ले रहे थे।
मौसम आज सुहाना था, हवा अपने साथ नमी लिए हुए हमारे चेहरे को मुहब्बत से चूमती हुई गुजर रही थी। शहर-ए-बनारस की एक बहुत ही खुबसूरत सी खामोशी हमारे मन को एक अलग ही शान्ति दे रही थी। जावेद मियां अपने काम में मसरूफ थे। मै अपने काका के साथ इस लम्हे को अपनी यादो में सजाना चाहता था। हमारी नज़र घाट पर पड़े हुए ढेर सारे कपड़ो के ढेर पर पड़ी। विचलित मन से मै उन्हें देख रहा था कि काका की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा तोड़ी। काका बोले कि “बेटा चाय पीना एक बहाना था, तुम्हारे मसरूफ वक़्त में से थोडा सा वक़्त अपने लिए लेना था।” काका की बातो से मेरा उनके लिए प्यार छलक बैठा। मै अचानक 38 साल पहले का उनका बबुवा बनकर उनसे गले लग बैठा। काका ने मेरा सर सहलाया और अपनी ऐनक सँभालते हुए कहा कि “ढेर इमोशनल होने की जरुरत नहीं है बे पत्रकार।” कपड़ो के ढेर को दिखाते हुए बोले कि “इहे दिखाने के लिए हम तुमका यहां लेकर आये है।” फिर उन्होंने लोलार्क कुंड स्नान के सम्बन्ध में बताया जिसको हम लेख के शुरू में आपको बताकर अपना ज्ञान बघार चुके है।
हर वर्ष लोलार्क कुंड के इस सफाई की ज़िम्मेदारी नगर-निगम को रहती थी, मगर इस साल कर्तव्य से मुंह मोड़ कर बैठा नगर-निगम इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। गन्दगी का अम्बार यह सोचकर घाट पर ही छोड़ दिया कि कपड़ो को आस-पास के लोग उठा कर ले जायेंगे। फल और सब्जी जानवर खा जायेंगे, और हम अपनी ड्यूटी पूरी करने से बच जायेंगे। वैसे तो नगर-निगम की इस सोच को 51 तोपों की सलामी देने का मन करता है। नगर-निगम का बस चले तो वह कूडे भी जानवरों के लिए ही छोड़ दे। अमूमन उसकी कार्य शैली देख कर के लगता नहीं है कि नगर निगम मुफ्त की बैठ के तनख्वाह लेना चाहता है ?
सड़के बदहाल है, गलियां अपने आंसू बहाते बहाते आँखे सुजा चुकी है, स्ट्रीट लाइट अदब से झुकी हुई है, कई पार्क खुद की पहचान खोते जा रहे है, मगर नगर निगम गर्व से कहता फिरता दिखाई देता है कि “मुस्कुराइए आप बनारस में है।” वो तो गनीमत है कि नगर निगम मुस्कुराने की अदा और जगह नहीं बताता वरना बत्तीसी औरंगाबाद के सडको पर और जबड़े कालीमहल के रोड पर रहते। हड्डियों को आप लल्लापुरा की रोड पर चुन रहे होते तो कोयला बाज़ार की गलियों में बिखरी आपकी मुस्कराहट किसी खड्डे में दिखाई देती। लिस्ट अगर देखेगे तो बहुत लम्बी है। किस मुहल्ले का नाम ले और किस मुहल्ले का नाम छोड़े। कामो बेस हर तरफ ऐसे ही हालात है। चंद सडको को छोड़ दे तो बकिया शहर आपके खुद आँखों के सामने है। मगर फिर भी जरा मुस्कुराए आप बनारस में है।