एक अनुत्तरित प्रश्न
आज दिल उदास है,
कुछ प्रश्न मेरे पास हैं,
सत्यता का आचरण……
क्यों नहीं इतना आसान है?
नियमों का पालन करना,
टीचर हमें सिखाते थे।
पर इस क्रूर दुनिया का,
परिचय क्यूँ नही कराते थे?
शायद उनके ह्रदय में एक आस थी,
उम्मीदों की कुछ किरणें उनके पास थी,
कि हम कुछ परिवर्तन लाएंगे,
सत्यता का परचम पुनः लहराएंगे।
इस कारण मैंने सौगंध खायी थी,
ईर्ष्या, निंदा, वासना…. मेरे लिए परायी थी।
अब लगता हुआ हमारे साथ धोखा है,
जैसे किसी ने पीठ पे चाकू घोंपा है।
नहीं कहता मैं कि कोई दोष उनका था,
पर क्या कोई अपराध हमारा था?
सत्यता का पाठ पढ़ाया,
पर क्या सत्य हमें मिल पाया?
अब जबकि थोड़ी समझ पाई है,
लगता…कैसी विपत आई है!
सत्यता की ये घंटी…
क्यों अपने गले बंधवाई है!
परिवार ने क्यों मुझे ठुकराया है?
मित्रों ने भी मुझे गलत ठहराया है,
‘सत्यमेव जयते’ का वो नाद…
क्या सच हो पाया है?
(हर्ष अग्रवाल की कलम से)