चलिए साहेब असत्य पर सत्य की जीत का पर्व विजयदशमी शांति पुर्वक मनाया जा चुका है. सभी ने काल्पनिक रावण को फुक दिया. ये एक अलग सी बात है कि मन के अन्दर बैठा रावण आज भी जिंदा है और कहकहा के हंस रहा है. मगर क्या फर्क पड़ता है साहेब दुनिया को दिखाने के लिए ही सही बड़े बड़े रावण को फुक दिया आज हमने. अब रावण का अस्तित्व मिट गया है साहेब. मन के अन्दर जो रावण है उसका क्या वो रहता है तो रहे.कौन दुनिया उसको देख रही है. दुनिया तो केवल जो देख सकती है वह रावण आज फुका गया है.
इसी बीच मुहर्रम पर इमाम हुसैन की शहादत को याद कर हम सीना भी पीट रहे है, भले खुद हमारे करम किसी यजीद से कम न हो, मन के अन्दर एक यजीद को बैठाले रहे मगर दुनिया को दिखाना है कि दिल में शहादत-ए-हुसैन का ग़म है और हम सीना पीट रहे है, अभी कल की ही तो बात है कि पडोसी के घर पानी नहीं आ रहा था उसके घर पानी का हाहाकार मचा था और हम बहुत शान के साथ अपने घर के बाहर ही अपनी बाइक को इस तरह धो रहे थे कि पूरा समुन्द्र हमारे पास है. मगर फर्क क्या पड़ता है हमको तो दुनिया को दिखाना है इसीलिए खूब उछलते कूदते हुवे हम ताजिया लेकर निकल पड़ते है. कहने को हमको ग़म-ए-हुसैन रहता है मगर अखाडा लेकर हम शस्त्रों का खुल्लम खुल्ला प्रदर्शन करते है और खूब उचल कूद मचाते हुवे ताजिये को दफ़न करने जाते है. क्योकि हमको दुनिया को दिखाना है अगर बतौर मुस्लिम लेखक कहू तो एक शब्द में यही कह सकता हु की आस्था के नाम पर सड़क पर उपद्रव करते है. सच कहू तो आस्था जब सड़को पर आकार खडी होती है तो ऐसा ही लगता है.
भले ही हमारे घर में कोई अगर मर जाय और पडोसी तेज़ आवाज़ में अपने बच्चो को डांट रहा हो तो हम सबको कहते फिरते है कि देखो फलनवा को शर्म हया नहीं है बगल में गमी पड़ी है मगर इतनी तेज़ आवाज़ में चिल्ला रहा है. साहेब तो ताजिया लेकर जो आप चलते हो वो क्या है ? जिसने हक़ और ईमान के लिए अपने पुरे कुनबे को कुर्बान कर दिया उनकी शहादत की याद में हम ताजिया लेकर चलते है और उछलते कूदते चलते है. मगर क्या करू साहेब, सच कड़वा होता है आस्था और अकीदत के नाम पर सड़क पर उपद्रव किया जाता है.
तो चलिए साहेब मन के अन्दर के यजीद को जिंदा रखते हुवे हम सुबह सुबह ताजिया लेकर उछलते हुवे कर्बला चलते है. घर में भले ही जोरू कंटाप मार दे मगर सुबह सड़क पर तलवार भाज कर खुद को बहादुर साबित करना है, और हा कर्बला तक के रास्ते में अगर कही दुसरे मसलक के लोग मिल गए तो उनसे थोडा थोडा झगडा सिर्फ इसलिए भी तो कर लेना है कि वो दुसरे मसलक के है. वो सीना पीट रहे है और हम सीना नहीं पीटेंगे. बस फिर क्या झगड़ लेंगे थोडा सा. अमन सुकून का क्या उसको कायम रखना तो प्रशासन का काम है मेरा थोड़ी न है. हम तो बस खुराफात करके सरक लेंगे. हा इसी रास्ते में फलनवा और धिमकनवा बस्ती दुसरे धर्म के लोगो की है तो उस चौराहे पर खूब ज़ोरदार नारा लगाना है खूब उछलना है. खूब हुड़दंग करना है. कोई फिकर नहीं मौका मिला तो आपस में भी लड़ लिया जायेगा. आखिर साल में एक बार ही तो मौका मिलता है. क्या खूब हमारा गम-ए-हुसैन है साहेब कि हम कल हाथी पर भी सवारी करेगे. भले उस दिन मौलाना ने बताया था कि हाथी कि सवारी यज़ीद भी किया करता था मगर खूब ऊँचा ऊँचा अलम लेकर चलेगे और हां ध्यान रहे अलम खास तौर से उसी जगह डिसबैलेंस होना चाहिए थोडा सा जिस घर कि छत पर लडकिया और महिलाये खडी हो. हां वहा पर खूब उचलना कूदना भी है.
चलिए साहेब बात तो बहुत सी है मगर बात को ख़त्म ज़रूर करना पड़ेगा दूसरो को भी मौका देना है. अब कोई मुझको नास्तिक कहे या न कहे मगर कुछ लोग फतवा लेकर ज़रूर दौड़ पड़ेगे. सोशल मीडिया वाले तो बस इस पर उल्टिया करने को तैयार बैठे है. कमेन्ट बाक्स खाली तो न रहने वाला है. भले से उस पर पान खाकर थूकना मना है क्यों न लिख दिया जाय. मानता हु बात मेरी कडवी है मगर आप भी मानो की कड़वा ही सही मगर सच तो यही है कि आस्था जब भी मन से उतर कर सड़क पर आती है तो मेलो में पकौड़िया खाते हुवे भी लोग भी कहते मिलेगे कि हमको ग़म-ए-हुसैन है. फिर भले पान कि दूकान पर खड़े होकर पान कि गिलोरी मुह में दबाकर आस पास के मोहल्लो कि छतो पर नज़ारा देखने को नज़रे दौडाए फिर भी कहेगे हम को तो ग़म है. समझ नहीं आता है कि आखिर ये कैसा ग़म है जो नज़र ऐसा आता है जैसे खुश हो.