Categories: Crime

सड़को पर तो एंटी रोमियो है, लेकिन घर के भीतर महिलाओं को कौन बचाएगा?

शबाब ख़ान
जिस सूबे में महिलाओं की सामाजिक दशा के सूचकांक देश में सबसे खराब हों और निरक्षरता दर सबसे ज़्यादा, जहां अधिकतर ब्याह परिवार के बुज़ुर्ग तय कराएं।विश्वविद्यालय स्तर पर भी वॉर्डन तथा परिवार लड़कियों को परिसर से परीक्षा स्थल तक हर चंद पुरुषों की छाया से बचाने पर ऐसे एकमत हों कि रात होते ही महिला हॉस्टल में कर्फ्यू लगा दिया जाता हो, उस उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने सड़कों पर महिलाओं के खिलाफ छेड़छाड़ निरोधी दस्ते, एंटी रोमियो स्क्वॉड का गठन किया, तो मीडिया में दावों की झड़ी के साथ कि किस तरह सड़क छाप रोमियो के दलों से अब ‘माताओं-बहनों’ की सुरक्षा चाक-चौबंद ही नहीं होगी, उनके खिलाफ हर तरह की हिंसा पर भी लगाम लगेगी।

ऐसे प्रतिगामी इलाके में युवाओं के बीच जात-पात के परे खुले प्रेम के इज़हार पर इस तरह की सार्वजनिक डंडा भंजाई की बाबत पहले किसी को ख़याल न आना सचमुच अचंभे की बात है। खैर, इसके बाद जब हमने अनेकों युवकों (तथा उनकी महिला मित्रों को भी) को इन दस्तों (और उनकी देखा-देखी डंडा लेकर निकल पड़े स्वयंभू जनसेवकों) के हाथों शक होते ही सरेआम पिटते देखा तो कुछ गलत मारपीट के मामलों की तफतीश की मांग होने पर कहा गया कि लंबे अराजक दौर से बिगड़े सूबे में इसी तरह महिलाओं के विरुद्ध हर तरह की छेड़छाड़ और हिंसा जड़ से खत्म की जा सकती है।
एंटी रोमियो स्क्वॉड सरीखे दस्तों का गठन दरअसल भारतीय पुरुष के मनोविज्ञान पर एक चौंकाने वाली रोशनी डालता है। युवा मित्रों के साथ अकेले में बतियाती लड़कियों को भी जिस तरह सरेआम घसीटा पीटा गया, उससे यह भ्रम कतई खत्म हो गया कि इस सूबे में नारी का दर्ज़ा बहुत ऊंचा है या महिला सम्मान किसी चिड़िया का नाम है। औरत पीटने वाला रोमियो प्रताड़क, पुलिसवाला हो, कि किसी वाहिनी का सदस्य, जिस पृष्ठभूमि से आता है, वह नाना वजहों से खासकर औरतों को लेकर घोर प्रतिगामी और धर्मभीरु बन गई है। हो सकता है कि थाना प्रभारी की बतौर वह कुछ अधिक सफेदपोश कुछ अंग्रेज़ी चेंप कर बात कहने वाला हो, लेकिन उसके भीतर भी वही संस्कार हैं जिनकी तहत हर थाना परिसर के पास भगवती जागरण होना और परिसर के भीतर लगी मूर्तियों के आगे अगरबत्ती जलाना सहज स्वीकृत है।
और फिर भी थाने में व्याप्त मानसिकता के डर से आम महिला अकेली पुलिस के पास जाने से कतराती है. हमारी औसत महिला पुलिस के व्यवहार से भी साफ होता है कि हमारे अधिकतर थाने महिलाओं की ज़रूरतों के तहत नहीं, बल्कि पुरुषनीत समाज के आतंक प्रतीकों की तरह कायम किये गये हैं। यही वजह है कि दर्ज किये गये अपराध के ताज़ा पुलिसिया आंकड़े दिखा रहे हैं कि महिलाओं के खिलाफ अनेक तरह की हिंसा कई अन्य स्रोतों से भी होती है। और उन वारदातों की दर सार्वजनिक छेड़छाड़ के मामलों से कहीं ऊंची है।
दहेज उत्पीड़न (2,280 से 2,407), बलात्कार (2,247), शारीरिक बदसलूकी (7,667 से 9,386), अपहरण (9,535 से 11,577) तथा अन्य तरह के उत्पीड़न (10, 263 से 11,979) की तादाद और बढ़त की रफ्तार इस साल अब तक छेड़छाड़ के केसों की तादाद तथा बढ़त (582 से 609) से कहीं अधिक हैं। और इनमें से ज़्यादातर अपराधों की घटनास्थली घरों के बाहर नहीं, भीतर थी।
उत्तर प्रदेश हो कि दिल्ली, पुलिस ही नहीं, डॉक्टरों तथा महिला हित से जुड़ी गैरसरकारी संस्थाओं सबका यही अनुभव है, कि सड़क नहीं बल्कि अपने ही घर की चारदीवारी के भीतर परिवारजनों के हाथों बरपा की जाने वाली हिंसा हमारी महिलाओं की शारीरिक तथा मानसिक असुरक्षा और टूटन का सबसे बड़ा स्रोत है। इन दिनों दर्जनों मामले रोज़ सामने आ कर समाज में बढ़ रहे गहरे अवसाद, नर्वस ब्रेकडाउन, आत्महत्या के मामलों में भारी उछाल की सूचना दे रहे हैं उसकी असली वजह भी यही है। यह दु:खद है कि घरेलू हिंसा तभी प्रकाश में आती है जब किसी मामले में पानी सर से ऊपर गुज़र गया हो।
वर्ना आम तौर पर बात बेबात महिलाओं पर हाथ उठाने या उनको लगातार शाब्दिक क्रूरता का निशाना बनाने को हमारे पुरुषनीत राज समाज से (जिसमें पुलिस, न्यायिक व्यवस्था के सदस्य और जन प्रतिनिधि सभी शामिल हैं ) परंपरा के नाम पर सांस्कृतिक स्वीकृति मिलती रही है। अचरज क्या कि ऐसे माहौल में पले बढ़े अधिकतर लड़कों ही नहीं, लड़कियों तक को पुरुषों का गुस्से में या नशे में गाली गलौज करना और कभी कभार हाथ छोड़ना पौरुष का प्रतीक लगता है और उसे चुपचाप सह लेना नारीत्व का। और जब तक मार पीट लगभग जानलेवा न हो, पुलिस तथा परिवारजन सभी पीड़ित महिला को स्थिति से तालमेल बिठाने की नेक सलाह देते हैं। यह गांवों से उपजा एक कबीलाई सोच हर पडोसी को अंकल आंटी या भाई साहब भाभी जी कहने वाले महानगरीय मध्य वर्ग के मन में भी गहराई से पैठा हुआ है।
और कबीले में इज़्ज़त तभी होती है जब व्यक्ति मां, बहिन, चाचा, भाई सरीखे किसी रिश्ते के दायरे में आता या आती हो। जो इससे बाहर है वह एक अजनबी और शक का स्वाभाविक पात्र ठहरता है। जो कबीलाई सरकार भावुक होकर हमें मंच से माताओं बहिनों के सशक्तीकरण के लिये काम करने का उपदेश देती रहती है वह क्या हमको बतायेगी कि जिन महिलाओं को हम इन पारिवारिक खांचों में नहीं रख सकते या रखना नहीं चाहते, वे हमारे लिये क्या हैं? अपने मुहल्ले भर का हम शायद कबीलाकरण कर भी सकते हैं, इस विविधता भरे विशाल देश का क्या करें? परिवार बड़ों के लिये सामाजिकता की बुनियादी इकाई है तो बच्चों के लिये भी बड़ों से सामाजिकता का पाठ सीखने की पाठशाला।
हमारे शहरी घरों में कई महिलायें पढ़ी-लिखी कमासुत हों तब भी बचपन से ही घर के लोगों का बेटे के जन्म, फिर लडकों को खान-पान से लेकर शिक्षा तक में लड़कियों से कहीं अधिक महत्व देनेवाले घरों में पली हैं। और उनके पति भाई या अन्य पुरुष रिश्तेदार भी बचपन में घर में शादी में लड़कीवालों का पलड़ा नीचे होने और उनसे दान दहेज बारात के खान पान की बाबत बढ़-चढ़ कर मांग करना जायज़ ठहराया जाता देखते हैं। घर के पुरुष घर भीतर माता, बहन, भाभी, बहू या बेटियों से तीखेपन से पेश आते और यदाकदा महिलायें उनसे पिटती भी हैं, इससे भी वे अनजान नहीं।
अदालती जिरहों से लेकर कॉरपोरेट बोर्ड की बैठकों तथा संसदीय बहसों तक से साफ है कि काफी ऊंचे पदों पर आसीन पुरुष भी अपनी जमात का वर्चस्व और मानसिक शारीरिक क्रम में महिला को कमतर मानने की मानसिकता से पीड़ित हैं। इस तर्क की तहत ताकतवर के हाथ कमतर जीव का यदाकदा पिटना और अपमानित किया जाना सामान्य सामाजिक व्यवहार है। 2012 में यूनीसेफ के किशोरों के बीच किये सर्वेक्षण में सामने आया भी कि 57 फीसदी लड़के और 53 फीसदी लड़कियां पति का पत्नी पर हाथ उठाना गलत नहीं मानते।
ऑनर किलिंग, एसिड हमलों, दहेज उत्पीड़न अथवा लड़कियों के अपहरण और अवैध खरीद फरोख्त करने के जितने और जिस तरह के मामले हरियाणा, राजस्थान से लेकर बंगाल या तमिलनाडु तक में सामने आ रहे हैं, यकीन मानें उनके लिये ज़मीन ऐसी ही सामाजिक-पारिवारिक मानसिकता तैयार करती है। उम्मीद है अब तक न सही देश के नेतृत्व को, पर इस लेख के पाठकों को कुछ-कुछ समझ आने लगा होगा, कि भारत में आपराधिक उत्पीड़न का सवाल कोई ऐसी सरल सचाई नहीं जिसका कोई इकतरफा डंडामार हल हो। पुलिस थानों के इर्द-गिर्द चूंकि चहारदीवारी है, पूछताछ में डंडा चलाने की आज़ादी है इसलिये वहां अधिक योजनाबद्ध तरीके से प्रेम या सरकार विरोधी नारेबाज़ी की जुर्रत करनेवालों के खिलाफ लगातार हिंसा की जा सकती है। औसत नागरिक दस्तों में (कम से कम अभी तक) न तो खुल कर कबायली कोड का विरोध करने की क्षमता है न ही डंडा चलाई की खुली सुविधा। इसलिये वे कभी कभार ही कैंपस के छात्रों या प्रेमियों पर पिल कर अपनी भड़ास निकालते हैं। मूलत: इन दोनों की आपराधिक मनोवृत्ति में कोई खास फर्क नहीं।
pnn24.in

Recent Posts

छठ पूजा: इस बार बरेका के सूर्य सरोवर पर पास से मिलेगा प्रवेश, होगी वाहनों हेतु विशेष व्यवस्था

ए0 जावेद वाराणसी: छठ पूजा का महापर्व इस वर्ष 5 नवंबर से शुरू हो रहा…

17 hours ago

गजब लापरवाही: वाराणसी एयरपोर्ट के अराइवल गेट की चाबी गुम जाने से 30 मिनट तक फंसे रहे शारजाह से आये यात्री, निकालने के लिए गेट का काटा गया लॉक

शफी उस्मानी वाराणसी: वाराणसी के लाल बहादुर शास्त्री एयरपोर्ट पर कर्मियों की एक बड़ी लापरवाही…

17 hours ago

कनाडा के मंदिर में हमला, पीएम जस्टिन ट्रूडो ने किया हमले की निंदा

माही अंसारी डेस्क: कनाडा के टोरंटो के ब्रैम्पटन इलाक़े में स्थित एक हिंदू मंदिर के…

19 hours ago

उत्तराखंड: अल्मोड़ा की खाई में गिरी बस, 35 की मौत, 15 घायल

आफताब फारुकी डेस्क: सोमवार सुबह उत्तराखंड के अल्मोड़ा के मार्चुला में यात्रियों से भरी बस…

19 hours ago

मध्य प्रदेश: जंगली जानवरों के हमलो से मारे गए लोंगो के परिजनों को सरकार देगी 25 लाख मुआवजा

तारिक खान डेस्क: मध्य प्रदेश सरकार ने जंगली जानवरों के हमले में मारे जाने वाले…

19 hours ago