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बाल दिवस पर विशेष – गांधी, नेहरू, पटेल की साझा समझ ने कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाया

शेष नारायण सिंह

देश में नेताओं और बुद्दिजीवियों का एक वर्ग जवाहरलाल नेहरू को बिलकुल गैर ज़िम्मेदार राजनेता मानता रहा है . मौजूदा सरकार में इस तरह के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है . नेहरु की नीतियों की हर स्तर पर निंदा की जा रही है . जवाहरलाल ने तय कर रखा था कि कश्मीर को भारत से अलग कभी नहीं होने देगें लेकिन अदूरदर्शी नेताओं को नेहरू अच्छे नहीं लगते थे . जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार में भी ऐसे लोग हैं जो हालांकि भारत के संविधान की बात करते हैं लेकिन भारत की एकता और अखण्डता के नेहरूवादी ढांचे को नामंजूर कर देते हैं .जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार में कुछ ऐसे लोग हैं जो पाकिस्तान परस्त अलगाव वादियों से दोस्ती के रिश्ते रखते हैं और कुछ ऐसे लोग है जो १९४६-४७ में कश्मीर के राजा हरि सिंह के समर्थकों के राजनीतिक वारिस हैं . यह लोग हर क़दम पर गलतियाँ कर रहे हैं और जब भी गड़बड़ होती है ,केंद्र सरकार से फ़रियाद करते हैं कि मामलों में दख़ल दो. केंद्रीय हस्तक्षेप के कारण ही कश्मीर की यह दुर्दशा हुयी है . आज की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी है . यह जब भी विपक्ष में रही है , कश्मीर में संविधान के आर्टिकिल ३७० का विरोध करती रही है लेकिन जब भी सत्ता में आती है उससे अपने को अलग कर लेती है और नेहरू की लाइन को मानने लगती है .

जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह को सरदार पटेल में औकात बताई थी और २६ अक्तूबर १९४७ को उससे विलय दस्तावेज़ पर वी पी मेनन को भेजकर दस्तखत करवा लिया था . जम्म-कश्मीर के मामलों में सरदार के उस हस्तक्षेप ने दक्षिण और मध्य एशिया की भावी राजनीति की दिशा तय कर दी थी . लेकिन उसके बाद हमने देखा है जब भी जम्मू-कश्मीर में केंद्रीय हस्तक्षेप हुआ है , नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार की बर्खास्तगी हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात हर बार खराब होते हैं . कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को अपनी आज़ादी में गैरज़रूरी मानती रही है . इसी रोशनी में यह भी समझने की कोशिश की जायेगी कि जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया था, और भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले २५ साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओं, महात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना रहनुमा माना था. पिछले ७० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त सन ४७ को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया.”पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की .” नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया .पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.

राजा की गलतियों के कारण ही कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया जिसके कारण भारत की सरकार खूब पछताई और आज तक उसका पछतावा है . उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने लिखा था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .

कश्मीर की समस्या में इंदिरा गाँधी ने भी हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. . उसके बाद जब १९७७ का चुनाव हुआ तो शेख अब्दुला फिर मुख्य मंत्री बने . १९७७ का जनता पार्टी के राज में हुआ विधान सभा चुनाव बहुत ही निष्पक्ष चुनाव माना जाता है .शेख की मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. लेकिन अब तक इंदिरा गाँधी बहुत कमज़ोर हो गयी थीं , एक बेटा खो चुकी थीं और उनके फैसलों को प्रभावित किया जा सकता था . अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया . गुल शाह की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं थी, बस एक योग्यता थी कि वे शेख अब्दुल्ला के दामाद थे .यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे बड़ा और मूर्खतापूर्ण उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया .और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी . जब १९९० में वी पी सिंह के काल में तत्कालीन गृह मंत्री, मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया यही दौर है जब कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ . और आज हालात जहां तक पंहुच गए हैं किसी की समझ में नहीं आ रहा है कि वहां से वापसी कब होगी.

इस तरह से हम देखते हैं कि कश्मीर के मामले में पिछले ७० वर्षों में बार बार केंद्रीय हस्तक्षेप हुआ है लेकिन सच्चाई यही है कि कश्मीर के बारे में नेहरू की सोच ही सही साबित होती रही है और रास्ता बातचीत का ही है जिसको मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने शुरू किया और अब एक अफसर को पूरी ताक़त देकर भेजा गया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि नेहरू और पटेल की कश्मीर नीति को गरियाने वाले कुछ समय शांत रहेंगे और हालात को सामान्य बनाने में अपना शांत योगदान करेंगे .

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