मध्य पूर्व में जिस तरह से हालात बदल रहे हैं उस से अमरीका, इस्राईल और उनके अरब घटकों की परेशानियों में भी दिन प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। उनके लिए सब से अधिक चिंताजनक बात यह है कि जिस शिया- सुन्नी नफरत को वह हवा दे रहे थे वह भी काम नहीं आ रही है। लेबनान में सुन्नियों की मदद से हिज़्बुल्लाह ने आधी से ज़्यादा सीटें हासिल कर लीं तो इराक़ में मुक़तदा सद्र के गठजोड़ ” सायरून” ने इराकी सुन्नियों के ज़बरदस्त समर्थन की वजह से संसदीय चुनाव में कामयाबी हासिल की।
अमरीका और इस्राईल की मुसीबत यह है कि दोनों ही गुट, उनके कट्टर विरोधी हैं। यह बात किया हैरान करने वाली नहीं है कि जिस हिज़्बुल्लाह को सुन्नी समुदाय का सब से बड़ा दुश्मन बना कर अमरीका ने दुनिया के सामने पेश किया था उसी हिज़्बुल्लाह ने लेबनान के चुनाव में सुन्नी प्रत्याशी खड़े करके आधी से अधिक सीटें जीत लीं और सऊदी अरब के समर्थक प्रधानमंत्री सअद हरीरी की लोकप्रियता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिये।
हिज़्बुल्लाह की सुन्नियों में लोकप्रियता की एक वजह यह भी है कि लेबनान के सुन्नी जानते हैं कि हिज़्बुल्लाह ही एक ऐसा दल है जिसने इस्राईल को दोबार पराजित किया है और उसके क़ब्ज़े से लेबनान के कई इलाक़ों में आज़ाद कराया है, इसी लिए उन्होंने हिज़्बुल्लाह के प्रत्याशियों को चुनाव में विजयी बनाया। जैसा कि आप जानते हैं कि लेबनान के संविधान के अनुसार वहां का राष्ट्रपति ईसाई, प्रधानमंत्री सुन्नी और स्पीकर शिया होता है और इन तीनों समुदायों की आबादी के लिहाज़ से उनके लिए सीटें विशेष हैं , इस लिए ईसाइयों की सीट पर सुन्नी प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ सकता और सुन्नियों की सीट पर शिया उम्मीदवार नहीं खड़े हो सकते लेकिन इस बार लेबनान में हिज़्बुल्लाह ने इस्लामी एकता की नयी उम्मीद जगायी और सुन्नियों के लिए आरक्षित सीटों पर अपनी पार्टी के सुन्नियों को खड़ा किया और लेबनान की जनता ने इस बात को इतना पसन्द किया कि आधी से ज़्यादा संसदीय सीटें, हिज़्बुल्लाह की झोली में डाल दीं।
इराक़ी चुनाव में मुकतदा सद्र की पार्टी ने हैरान कर दिया।
उधर इराक़ में भी अमरीका के क़ब्ज़े के खिलाफ आरंभ से ही संघर्ष करते आ रहे शिया धर्मगुरु मुक़तदा सद्र ने भी इस बार अमरीकी हितों को ज़बरदस्त नुक़सान पहुंचाया और संसदीय चुनाव में सब से अधिक सीटें हासिल करके सब को हैरान कर दिया। ज्ञात रहे कि मुक़तदा सद्र ही एसे एकमात्र नेता हैं जिनकी ” मेहदी आर्मी” के सिपाही सद्दाम हुसैन के पतन के बाद अमरीकी सैनिकों से अंतिम क्षणों तक लड़ते रहे थे मगर मेहदी आर्मी को उस वक्त नजफ अशरफ और कूफा से बाहर निकलने पर मजबूर होना पड़ा था जब अमरीकी सेना ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के रौज़े पर ही बमबारी शुरु कर दी थी और रौज़े को तबाह होने से बचाने के लिए इराक़ के सब से बड़े धर्मगुरु आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली सीस्तानी ने मुक़तदा सद्र से कहा कि वह रौज़े को छोड़ कर बाहर निकल जाएं।
मुकतदा सद्र इराक में अमरीका के घोर विरोधियों में समझा जाता है।
बहरहाल इन दोनों ताक़तों की कामयाबी के बाद मध्य पूर्व में अमरीकियों और उनके घटकों के हितों को ज़बरदस्त नुक़सान पहुंचा है इसी लिए अमरीका के घटकों की तरफ से हिज़्बुल्लाह को आतंकवादी संगठन घोषित किये जाने का अभियान तेज़ हो गया काश! कोई उनसे पूछे कि हिज़्बुल्लाह ने किस मस्जिद में धमाका किया? किस स्कूल में घुस कर बच्चों को निशाना बनाया? किस बाज़ार में हिज़बुल्लाह के किसी आत्मघाती आक्रमण कारी ने स्वंय को धमाके से उड़ाया जो उस पर आतंकवाद का आरोप है? ध्यान योग्य बात यह है कि 23 अक्तूबर सन 1983 को अमरीकी युद्धपोत पर हुए जिस हमले में ढाई सौ अमरीकी और पचास फ्रांसीसी नौसैनिक मारे गये थे उसका आरोप भी अमरीका , हिज़्बुल्लाह पर लगाता है जबकि हिज़्बुल्लाह का गठन 1985 में हुआ था।
सीरिया में हज़रत ज़ैनब के रौज़े की रक्षा के लिए हिज़्बुल्लाह सीरिया युद्ध में शामिल हुआ
हिज़्बुल्लाह के खिलाफ से सब अधिक प्रोपगंडा, सीरिया के गृहयुद्ध के दौरान हुआ जब हिज़्बुल्लाह के सिपाही वहां इस लिए जाने पर मजबूर हुए क्योंकि तकफीरी आतंकवादियों ने पैगम्बरे इस्लाम के परिजनों के रौज़ों पर हमले शुरु कर दिये और हिज़्बुल्लाह को लगा कि सीरिया की सेना इन रौज़ों की हिफाज़त नहीं कर पाएगी। हिज़्बुल्लाह के इस हस्तक्षेप को शिया-सुन्नी मुसलमानों के मध्य फूट डालने के लिए अमरीकी एजेन्टों ने खूब इस्तेमाल किया लेकिन लेबनान के सुन्नियों ने अमरीका और उसके घटकों के मुंह पर तमांचा मारते हुए यह बात साबित कर दी कि वह हिज़बुल्लाह को इस लिए पसन्द करते हैं क्योंकि वह अमरीका के टुकड़ों पर पलने वाला संगठन नहीं है बल्कि इस्राईल की आंखों में आंखें डाल कर बात करने वाला संगठन है।
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