आदिल अहमद
रासायनिक हथियारों के प्रयोग के संबंध में मौजूद प्रमाण इस बात के सूचक हैं कि रासायनिक हथियारों के प्राथमिक पदार्थों को अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों ने सद्दाम को दिया था।
प्रतिरक्षामंत्री ब्रिगेडियर जनरल अमीर हातेमी ने कहा है कि ईरान रासायनिक हथियारों की भेंट चढ़ने वाला एक बड़ा देश है।
उन्होंने कहा कि इराक द्वारा ईरान पर थोपे गये युद्ध के दौरान सद्दाम ने 570 से अधिक बार ईरान के खिलाफ रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया था परंतु अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने इस प्रकार के हमलों की भर्त्सना व निंदा के लिए बैठक तक नहीं बुलाई।
सद्दाम ने अमेरिका की हरी झंडी मिलने के बाद ईरान पर हमला किया था जो आठ वर्षों तक जारी रहा। सद्दाम ने इस युद्ध के दौरान जो अपराध किये उनमें से एक बड़े पैमाने पर रासायनिक हथियारों का प्रयोग था।
रासायनिक हथियारों के प्रयोग के संबंध में मौजूद प्रमाण इस बात के सूचक हैं कि रासायनिक हथियारों के प्राथमिक पदार्थों को अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों ने सद्दाम को दिया था।
फ्रांसीसी समाचार पत्र “लिब्रेशन” लिखता है कि इराक की पूर्व सरकार ने ईरान के खिलाफ जो रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया था उसे कोई भूल नहीं सकता।
इस समाचार पत्र ने आगे लिखा था कि ईरान, अमेरिका और यूरोप की इस दोहरी नीति को उस वक्त विश्ववासियों के सामने पेश करता था जब इराक, ईरानियों पर रासायनिक बमबारी कर रहा था। ईरान के रक्षामंत्री ने रासायनिक हथियारों के प्रयोग के संबंध में जो बात कही थी उसे इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
अभी कुछ दिन पहले अमेरिकी गुप्तचर एजेन्सी सीआईए के जो पुराने दस्तावेज सामने आये वे इस बात के सूचक हैं कि अमेरिका की तत्कालीन सरकार का मानना था कि इस प्रकार के हमलों से ईरान घुटने टेक देगा।
सीआईए ने जिन दस्तावेज़ों को प्रकाशित किया था उनका संबंध 23 मार्च वर्ष 1984 से था।
ऑस्ट्रेलियाई प्रोफेसर जेसन वेन डैमिन्ग ने वियतनाम युद्ध सहित दूसरे युद्धों में रासायनिक हथियारों के प्रयोग के बारे में अध्ययन किया है।
वह कहते हैं कि अमेरिका ने वियतनाम युद्ध में आरेन्ज नाम के ज़हर का प्रयोग किया था जो बहुत से बच्चों के अपंग पैदा होने का कारण बना परंतु अब वह दावा करता है कि दूसरे देशों द्वारा रासायनिक हथियारों के प्रयोग के संबंध में उसकी नैतिक ज़िम्मेदारी है।
बहरहाल संयुक्त राष्ट्रसंघ में ईरानी राजदूत ग़ुलाम अली खुश्रु ने भी सोमवार को कहा है कि दूसरे देशों को डराना- धमकाना अमेरिका की विदेश नीति बन गयी है और उसका परिमाण राष्ट्रसंघ और उसके घोषणापत्र की कमज़ोरी है।
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