तारिक आज़मी
हमारे काका कहते रहे कि बतिया है कर्तुतिया नाही तो भैया हम पहले ही कहे दे रहे है कि हम खाली बतियाते है करना धरना तो कुछ नहीं है. हम खाली सवालो से ही बतिया लेते है और भैया कर भी का सकते है. करना तो बड़े साहब लोगो को है वो चाहे तो कुछ कर सकते है मगर भैया हम कहा कह सकते है. साहब लोग नाराज़ भी हो सकते तो भैया बतिया की खटिया तनिक बिछा लेते है और बतियाना शुरू करते है.
अब बात किया जाए मानवाधिकार की तो यही कार्यप्रणाली में पुलिस की लाठियों से कोई ग्रामीण घायल हुआ होता तो मानवाधिकार उसके लिये हडकंप मचा देता. घायल व्यक्ति को इलाज के लिये सभी पैसे देते हुवे फोटो खिचवा रहे होते. लोग बड़ी बड़ी घोषणाये कर रहे होते. कुछ तो घायल के लिये सरकारी नौकरी की मांग कर रहे होते. इलाज हेतु दिशानिर्देश आ रहे होते. मगर एक सप्ताह में घटित हुई इस तीनो घटनाओ में ऐसा कुछ नही हुआ. सब कुछ सामान्य हो गया. घायल पुलिस कर्मी सरकारी अस्पताल में इलाज करवा रहे है. और दूसरी सुबह हो चुकी है.
आज कोई नहीं है जो आवाज़ उठाये कि पुलिस वाले जो घायल है उनको सरकारी खर्च पर बड़े अस्पताल में इलाज करवाया जाये. आज मानवाधिकार नहीं बोल रहा है. हमारे देश में आतंकी अजमल कसाब को अधिवक्ता मिला जाता है और उसके तरफ से बहस करता है, मगर शैलेन्द्र सिंह जैसे पुलिस वाले को अधिवक्ता नही मिलता जबकि वायरल विडियो इस घटना को सेल्फ डिफेन्स भी बता सकता है. क्या पुलिस कर्मी शलेन्द्र सिंह का कृत्य आतंकवादी से भी गया गुज़रा है. कचहरी में अधिवक्ताओ द्वारा घेर कर पुलिस वालो को मारे जाने की कई घटनाये प्रदेश में ही नहीं देश में है. आज तक क्या अधिवक्ता जो उस घटना में दोषी है पर कार्यवाही तो दूर रही कभी मुक़दमा भी लिखा गया ? बल्कि उलटे मार खाने वाले पुलिस वाले को ही लाइन में आमद करवानी होती है या फिर जिले के बाहर कही स्थानांतरित कर दिया जाता है.
सही है कि पुलिस कर्मीयो पर मानवाधिकार का दबाव होना चाहिये, अन्यथा पुलिस निरंकुश हो सकती है. मगर एक बात ये भी सही है कि पुलिस कर्मियों के लिये भी मानवाधिकार होना चाहिये. मानवीय मूल्यों के आधार पर भारत में अजमल कसाब को वकील मुहैया करवाया जाता है ताकि भारत की न्याय प्रणाली पर कोई विदेशी आँख न उठा सके तो उसी मानवीय मूल्यों के तहत शैलेन्द्र को भी वकील मिलना चाहिये. ताकि न्याय निष्पक्ष हो. मानवाधिकार को भी पुलिस कर्मियों के लिये खड़े होना चाहिये न कि हमेशा पुलिस के खिलाफ पाले में खड़े रहे. आखिर वह भी भारत के मूल नागरिक है और देश में मिले मौलिक अधिकारों पर उनका भी बराबर का हक़ है.
चलिये साहब बहुत बतिया लिया अब ज्यादा बतियायेगे तो खटिया ही नहीं रहेगी तो बतिया कहा होगी. वैसे भी सच तनिक कड़वा होता है आसानी से हज़म नही होता है. फिर भी सच तो सच है अब बात सही हो तो कह सकते है कमेन्ट बाक्स में कमेन्ट के माध्यम से अन्यथा पान खाकर थूकना मना है भी लिखा जा सकता है क्योकि जहा ये लिखा होता है सबसे अधिक पान की पीक उसी के नीचे पाई जाती है.
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