तारिक आज़मी
वैसे देश विविधता में एकता की मिसाल है। मगर आज अगर आप अपने घरो की छत पर चढ़े होंगे तो आपको अहसास हुआ होगा एक आवाज़ की कमी का। जी हा वही आवाज़ जो हम बचपन में लागते थे आज के दिन। भककटा रजा, कही थोड़ी बहुत अगर सुन भी रहे होंगे तो वो भी शायद हम लोगो के तरह प्रौढ़ावस्था में पहुच रहे होंगे। सच तो यही है भले हम जवान दिखाई दे और खुद को साबित करे मगर 40 की उम्र का मतलब होता है बुज़ुर्गी के रास्ते में मंजिल के तरफ रवाना कदम। तो इस बुज़ुर्गी के रास्ते में हमको ये आवाज़ आज भी खलती है और कमी महसूस होती है। मगर हाल कुछ इस तरह से बदल चुके है कि अब अगर हम चिल्ला कर कहे भी कि भक्ककाटे तो पडोसी का जवानी की दहलीज़ पर खड़ा बच्चा कहेगा अंकल क्या हुआ ?
वैसे ये सिर्फ एक मात्र कला नही है जिसके हम आखरी सिपाही बचे है। इसके अलावा भी मुल्क के कई निशानी में हम गायब हो गये है या फिर कह सकते है कि हम आखरी पीढ़ी है जो इसका आनद ले चुके है। अब आगे ये आनद लेने वाली पीढ़ी नही रहेगी। जैसे कुछ उदहारण देता हु। कि हम वो आखरी पीढ़ी हैं, जिन्होंने कई-कई बार मिटटी के घरों में बैठ कर परियों और राजाओं की कहानियां सुनीं, जमीन पर बैठ कर खाना खाया है, प्लेट में चाय पिया है। अब ये सपनो की बात हो चुकी है। और मैनर की श्रेणी में खड़े हमारे बच्चो को उनकी माँ मैनर सिखा रही होती है। मगर हकीकत तो ये है कि आज भी प्लेट में चाय का स्वाद सबसे निराला है।
हकीकत में हम वो आखरी लोग हैं, जिन्होंने बचपन में मोहल्ले के मैदानों में अपने दोस्तों के साथ पम्परागत खेल, गिल्ली-डंडा, छुपा-छिपी, खो-खो, कबड्डी, कंचे खेले हैं। अब के बच्चे कंचे खरीद भी लेते है तो बेड रूम में बैठ कर बेड के ऊपर ही उसको लुढ़काते है। हमारे जैसे दो उंगलियों के जोर से काफी दूर तक निशाना साध कर मारना उनको कहा आ पायेगा। मगर इसके आनंद को भी वो नही ले पायेगे।
आप सोचो हम वही पीढ़ी के लोग हैं, जिन्होंने अपनों के लिए अपने जज़्बात, खतों में आदान प्रदान किये हैं। एक ख़त किसी रिश्तेदार का आ जाता था तो सभी लोग आपस में गोल बना कर बैठा जाते थे। घर का कोई एक बड़ा खत पढता था और हम सब ऐसे सुनते थे जैसे अभी सामने बैठे हो और ख़त भेजने वाले से बात कर रहे हो। आज तो घर के अन्दर एक दुसरे को बधाई हम व्हाट्सअप पर दे देते है। एक दुसरे से मिलना तो दूर रहा। कोई ज़रूरत हुई तो फोन करके काम करते करते बात कर लेते है। मगर ख़त का इंतज़ार जो होता था वह वाकई में क्या लुत्फ़ देता था। हमको न बचपन में कूलर नसीब था न एसी और न फ्रिज और हीटर। हम तो मटके का पानी पीकर खुद को तरोताज़ा महसूस करते थे। मटके भी खूब गीला करके रखने से पानी ज्यादा ठंडा होगा ये हमारी सोच रहती थी। आप वैसे उस टेस्ट को याद करे कि क्या अब भले उससे ज्यादा ठंडा पानी हम पी ले। मगर उस वक्त जो प्यास बुझती थी वैसी प्यास क्या अब कोई फ्रिज बुझा सकती है। स्कूल जाने के पहले हमारी माँ हमारे बालो में सरसों का तेल लगाया करती थी। उस तेल को लगाने के बाद हम अपने छोटे छोटे बालो को सजा सवार कर स्कूल जाया करते थे। आज कल तो हमारे बच्चे तेल के नाम से ही डरते है। याद है वो स्कूल जाने के पहले आँखों में काजल लगता था। न नुकुर करे तो मम्मी तुरंत कहती थी बिल्ली की तरह आँखे हो जायेगी और हम डर के काजल लगवा लिया करते थे। आज कल तो काजल भी ब्रांडेड आ रहा है। एक बार लगाओ तो दो दिन की छुट्टी।
वो हैण्ड राईटिंग बनाने के लिये कलम, दवात, सियाही की व्यवस्था करना। स्याही भरते भरते हाथो का काला हो जाना। वो भी अगर टीचर ने देख लिया तो एक बार पीटना ज़रूरी है। हकीकत में देखे तो हम लोग हम वो आखरी लोग हैं, जिन्होंने टीचर्स से मार खाई है। आज तो टीचर हमारे बच्चो को मार दे एक थप्पड़ तो कोहराम हो जाता है और पुलिस थाना सब हो जाता है। यहाँ हम लोग तो वो थे कि टीचर कभी कभी मूड सही करने के लिये ही कूट देती थी। वो सफ़ेद केनवास के जूते, जिनके गन्दा हो जाने पर खड़िया से रगड़ रगड़ कर उसको वापस चमका लिया करते थे। अक्सर तो खड़िया का एक लेयर ही जूते पर चढ़ा लिया करते थे। जूता चमकने भी लगता था। वो गुड़ की चाय सुबह काला या लाल दंत मंजन या सफेद टूथ पाउडर इस्तेमाल किया है। दांतों को उस टूथ पाउडर लगा कर उंगलियों से रगड़ रगड़ के साथ करना, शाम को रेडियो पर रेडियो पर बीबीसी की ख़बरें, विविध भारती, आल इंडिया रेडियो और बिनाका जैसे प्रोग्राम फिर टीवी हो जाने पर चित्रहार के इंतज़ार में एक घंटे पहले से टीवी सेट के सामने बैठ जाना और गानों की गिनती करना कितने इस बार आये, ज्यादा आने पर खुश हो जाना और कम आने पर टीवी वालो को बुरा भला कहना।
वो शाम होते ही छत पर पानी का छिड़काव किया जाना। उसके बाद चादरें बिछा कर सोना। एक स्टैंड वाला पंखा सब को हवा के लिए हुआ करता था। सुबह सूरज निकलने के बाद भी ढीठ बने सोते रहना वो सब दौर बीत गया। खूबसूरत रिश्ते और उनकी मिठास बांटने वाले लोग हम लोगो ने देखे हैं, जो लगातार कम होते चले जा रहे है। अब तो रिश्तो में खुदगर्जी और मक्कारी नज़र आने लगी है। डिग्री तो बहुत सी ले डाला है मगर खुदगर्ज़ी, बेमुरव्वती, अनिश्चितता, अकेलेपन, व निराशा ये सब आस पास ही है। अपनापन तो खोता जा रहा है। बस रह जा रहा है तो सिर्फ मतलब। मतलब है तो गधे को बाप का दर्जा देने वालो की कमी समाज में नही मिलेगी। आप नज़रे उठा कर देखे जब हमारे मकान कच्चे होते थे तो हमारे जज्बे पक्के होते थे। आज मकान तो पक्के बनवा लिया गया मगर जज्बा आज कच्चा ही रह गया है।
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