तारिक आज़मी
पटना: बिहार में एनडीए गठबंधन के तीनो घटक दलों में हुवे सीट के बटवारे के बाद अब राजनितिक सोच रखने वाले भी गंभीर मुद्रा में इसके ऊपर विचार कर रहे है। भाजपा और जदयु इस बार 17-17 सीट पर चुनाव लड़ रहे है जबकि एक अन्य घटक दल राम विलास पासवान का एलजेपी 6 सीट पर चुनाव लडेगा। इन सीट के बटवारे में जहा एक तरफ रामविलास पासवान खुश नज़र आ रहे है। वही दूसरी तरफ जदयू के शुभचिंतको के चेहरे पर पर चिंता साफ़ देखा जा रहा है। कारण शायद भाजपा गठबंधन के साथ जदयू को मिली सीट है।
सीटों के बंटवारे के लिहाज से देखें तो सीमांचल की ज्यादातर सीटों पर जदयू चुनाव लड़ेगी। जिसमें किशनगंज और भागलपुर भी शामिल हैं। छह सीटें रामविलास पासवान की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी को मिली हैं। सीटो के बटवारे में लोक जनशक्ति पार्टी के खाते में तीन आरक्षित सीटें हाजीपुर, समस्तीपुर और जमुई है जो उन्होंने पिछली बार भी जीती थीं। इस बार भी यही सीट उनके खाते में गई हैं।
वहीं जेडीयू के खाते में जहां तक आरक्षित सीटों का सवाल है, तो गया और गोपालगंज की सीट मिली है। भाजपा को एक सासाराम की सीट आरक्षित सीटों की श्रेणी में मिली है। गया भाजपा की परंपरागत सीट रही है और गोपालगंज सीट पर जेडीयू जब वो सामान्य सीट थी या 2009 में आरक्षित हुई तब भी उसी पर उसके उम्मीदवार जीते थे। बटवारे में जदयू को 12 ऐसी सीटें हैं जिन पर पहले भी वो एक बार या उससे अधिक बार विजयी हुई है। लेकिन कई ऐसे सीटें हैं, जिसके ऊपर उनकी जीत शंका पैदा करती है।
किशनगंज, कटिहार, सिवान, भागलपुर और गया ये वह सीट है जहा से जदयू पहले चुनाव हार चुकी है। अगर बात पिछले चुनावों की करे तो यहाँ से उसके उम्मीदवार मैदान में थे लेकिन उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा था। नीतीश कुमार ने सीमांचल में किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया तीनों अपने झोले में करके एक बड़ा राजनितिक रिस्क लिया है। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक भाजपा से गठबंधन के बाद ये एक बड़ा रिस्क लिया है क्योंकि ये तीन ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 35 प्रतिशत से अधिक है। ये मतदाता निर्णायक भूमिका में रहते है। नितीश का भाजपा से हुआ गठबंधन मुस्लिम मतदाताओ को तो पसंद नही है। अगर पिछले गठबंधन के टूटने पर विरोध प्रदर्शनों को देखे तो इन इलाको में खासा विरोध नितीश को देखना पड़ा था। यहाँ के मुस्लिम मतदाताओ के हिसाब से जहा नितीश पिछड़े, दलित और अतिदलित का कार्ड यहाँ चल सकते है तो विपक्ष यहाँ से मुस्लिम कार्ड भी चल सकता है। ध्यान ये भी देने वाली बात होगी कि लालू यादव की पकड़ इन इलाको में काफी रही है। पिछड़े वर्ग के मतों पर लालू के नाम पर मत विभाजन होने की संभावना से इनकार नही किया जा सकता है।
अगर ये मतों का बटवारा 20% भी हो गया तो नितीश के लिये खासी मुश्किल का वक्त होगा। क्योकि जानकर बताते है कि एआईईएम शायद यहाँ से अपने प्रत्याशी न उतारे। अगर ऐसा हुआ तो मुस्लिम मतों का विभाजन नही होगा और इसका एक बड़ा हिस्सा विपक्ष के खाते में जाने की संभावना से इनकार नही किया जा सकता है। मगर शायद पीके की सोच के अनुसार अगर इन सीट पर सहमती बनी है तो उनके दिमाग में पिछले विधान सभा चुनाव रहे होंगे। मगर यहाँ ये भी देखने वाली बात है कि भाजपा के खिलाफ बिहार में चली बिहारी और बाहरी की मुहीम ने काफी काम किया था और महागठबंधन एक साथ एक मंच पर खड़ा था।
वैसे राजनितिक जानकार तो इसके ऊपर भी ध्यान दे रहे है कि भाजपा को नीतीश ने जिन सीटो पर सीमित किया है उनमे अधिकतर सीट अगड़ो के मतों से जीती जा सकती है। यानि भाजपा को जदयू शायद पिछड़े, दलित और अतिदलित मतों से दूर रखने की एक कवायद रही हो कि इन सीट को उनको दिया गया हो। वैसे भाजपा के अन्दर उठे विरोध के स्वर पर भी नज़र डाले तो शत्रुधन सिन्हा लगातार मोदी का विरोध करते रहे है। उनकी सीट पटना साहिब इस बार भाजपा के लिये आसान नही होगी क्योकि इसी सीट पर शत्रुधन सिन्हा चुनाव लड़ेगे और भाजपा उनका टिकट काट रही है। दूसरी सीट कीर्ति आजाद की है जो लगातार मोदी का विरोध करने के बाद आचार संहिता लगने से पहले भाजपा छोड़ कांग्रेस का हाथ थाम चुके है। अब इस सीट पर भाजपा को कीर्ति आज़ाद के खिलाफ मजबूत प्रत्याशी लाना होगा। क्योकि ये साफ़ ज़ाहिर है कि कीर्ति आजाद कांग्रेस के टिकट पर इस बार अपनी सीट बचाने उतरेगे।
सब मिलाकर राजनितिक पुरोधाओ और जानकारों की नज़र से देखे तो इस बार नीतिश ने एक बड़ा रिस्क लिया है। ये रिस्क उनके राजनितिक कैरियर पर खासा असर दिखा सकता है। अगर अपनी सभी सीट नीतिश ने बचा लिया तो उनका राजनितिक कद बढ़ सकता है और अगर नही बचा पाए तो उनका राजनितिक कद कम भी हो सकता है। सब मिलाकर इस बार बिहार में लोकसभा चुनाव रोमांचक होने की पूरी संभावना है। साथ ही नतीजे अप्रत्याशित हो सकते है। तो दिल थाम के बैठे चुनाव शुरू हो रहा है साहब………….
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