तारिक आज़मी
वाराणसी। हमने इसके पहले भी कहा था कि वोटर अभी खामोश है। इस बार चुनावों में किसी की लहर नही है। भले खबरिया चैनलों पर बैठ कर दल विशेष के प्रवक्ता बनकर एंकर कुछ भी हिन्दू मुस्लिम मुद्दे पर बहस करते नज़र आये। मगर ज़मीनी हकीकत तो ये है कि आईटी सेल को भी सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को लेकर मुह की खानी पड़ रही है। लगातार कोशिशे जारी है कि मामले को हिन्दू मुस्लिम तकसीम कर दया जाए मगर हकीकत ये है कि मुद्दा उस रस्ते पर भटक ही नही रहा है।
कांग्रेस के घोषणा पत्र पर AFSPA के सम्बन्ध में हुई घोषणा को लेकर अचानक गर्म तवे पर पड़ने वाले पानी की तरह अन्य दल छनक रहे हो। मगर जनता तो ये भी जानती है कि ये कानून केवल कश्मीर में नही लगा है। देश के मुख्तलिफ हिस्सों में भी ऐसे कानून लागू है। इसी कानून को हटाने के लिए शर्मीला इरम चानू ने अपनी जान की बाज़ी लगा कर 17 साल तक भूख हड़ताल किया। मगर कहा किसी को याद होगा शर्मीला का ये बलिदान। चन कतरे वोट ही इस 17 साल का रिजल्ट रहा।
खैर हमारा मकसद मामले को कई तरफ घुमाना नही है। हम आपको सिर्फ इस बात का अहसास दिलाना चाहते है कि खबरिया चैनलों पर बैठ कर हिन्दू मुस्लिम मुद्दे पर बहस करना बहुत आसान है। इसके प्रायोजक भी मिल जाते है। मगर सच के साथ सही मुद्दे को उठाना थोडा मुश्किल है। अब आज दोपहर में ही एक खबरिया चैनल इस बात पर बहस कर रहा था कि एक्सीडेंटल प्राईमिनिस्टर सही है कि नही। समझ नही आता कि आईटी सेल अब चुक गई है क्या जो बालीवुड का भी सहारा लेना हो रहा है। इस मुद्दे पर बहस करते हुवे किसी की नज़र वाराणसी विश्वनाथ मंदिर के छत्ताद्वार स्थित दुकानदारो द्वारा लगाये गए पोस्टर पर तो नही जा सकी। आखिर इतनी बेचैनी क्यों ? ये पोस्टर लगाने वाले भी तो भारतीय नागरिक है। वो भी वोटर है। फिर उनकी आवाज़ हमारे कानो तक क्यों नही पहुच रही है। कितने खबरिया चैनलों ने इस मुद्दे पर बात किया या फिर खबर भी दिखाई। आखिर कब तक ये बेचैनी का आलम रहेगे। क्यों हम हकीकत को छुपा लेते है और झूठ का परचम बुलंद कर रहे है। क्या हम अपने पेशे से ईमानदारी बरत रहे है। शायद नही हम एक दल विशेष के प्रवक्ता की तरह ही तो काम कर रहे है। आखिर बहस एक बार इसके ऊपर भी तो होनी चाहिये कि आखिर कौन सी दुकानदारों को मज़बूरी थी कि ये पोस्टर लगा डाला। मगर नही साहब हम तो बहस हिन्दू मुस्लिम मुद्दे पर करेगे।
सबका साथ सबका विकास का नारा देकर पांच साल तक सरकार तो चल सकती है और चल भी गई। पुरे पांच साल होने लगे। अब ये सबका साथ सबका विकास कर नारा मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र तक पंहुचा कि नही पहुच पाया बहस का मुद्दा हो सकता है। मगर इसके ऊपर बहस करने का कोई फायदा नही है। हमको प्रायोजक कहा से मिलेगे। आखिर प्रयोजित संस्करण रहेगा तभी तो दाल में देसी घी का तड़का लगेगा। आलिशान महल जैसे घरो की एसी चलेगी। बड़ी गाडियों से चलना है तो बहस का मुद्दा फिर हिदू मुस्लिम होने के क्या हर्ज है। क्या फर्क पड़ता है कि देश का आम हिन्दू मुस्लिम एक साथ रहकर एक साथ खाता है और खुशियों को तकसीम करता है। मगर हमको बहस हिन्दू मुस्लिम मुद्दों को लेकर ही करना है।
बहस एक बार इसके ऊपर भी होने की बात हो सकती है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में इस बार मोदी लहर दिखाई नहीं दे रही है। आलम ये है कि बीजेपी के बड़े नेताओं को भी सुनने के लिए लोग नहीं पहुंच रहे हैं। ये बताता है कि इस चुनाव में जनता चुप है सिर्फ सभी पार्टियों के कार्यकर्ता ही नज़र आ रहे हैं और कार्यकर्ता कितनी सीटे भर पाएंगे सभी को पता है। अभी छोटे-छोटे हॉल और छोटी जन सभाओं में कुर्सियां खाली रह जा रहीं हैं तो आने वाले दिनों में बड़े मैदान कैसे भरेंगे ये नेताओं के लिए एक बड़ी चुनौती नज़र आ रही हैं।
उदहारण दे लिए आप देख ले कल योगी के वाराणसी विजिट को। पिपलानी कटरा स्थित सरोजा पैलेज में गिनती के युवा सीएम योगी आदित्यनाथ के कार्यक्रम में पहुंचे थे। नतीजा ये हुआ कि जैसे-तैसे सभागार आधा भर पाया। जबकि आधी कुर्सियों से युवा गायब थे। ये देख कार्यक्रम के संयोजकों के पसीने छूटने लगे।सीएम के सामने बेइज्जती होते देख आनन-फानन में संयोजकों ने बीजेपी कार्यकर्ताओं को बुलाना शुरू किया। इसके बाद युवाओं की जगह बीजेपी के बुजुर्ग कार्यकर्ताओं ने ली। हालांकि, सभागार की तस्वीरें देख सीएम भी नाखुश दिखे। इसे लेकर सभागार में तरह-तरह की चर्चा चलती रही। वाराणसी को बीजेपी का सबसे मजबूत गढ़ माना जाता है। पीएम नरेंद्र मोदी खुद यहां से सांसद हैं। इसके बावजूद शहर के अंदर बीजेपी का हाल देख राजनीतिक जानकार भी हैरान हैं। ये पहली बार ऐसा नही हुआ है इसके पहले भी योगी की सभाओ में भीड़ नदारत रही है। कही ऐसा तो नही आम जनता अब इन सब से उब चुकी है।
देखिये ज़रा ध्यान देकर कि इसके पहले योगी मथुरा में सांसद हेमा मालिनी के नामांकन में गये थे वहां हुई जनसभा में भी कुर्सियां खाली थीं। जिसकी खबरे भी सुर्खियां बनी थीं, गाज़ियाबाद में भी यही हाल था गाज़ियाबाद के बाद 26 मार्च को वाराणसी में विजय संकल्प सभा हुई थी, उसमे भी आधी से ज़्यादा कुर्सियां खाली रह गई थीं। इस सभा में तो बीजेपी के कार्यकर्ता कुर्सी हटाते और रखते नज़र आये थे। बहस एक बार इसपर हो सकती है मगर नही बहस का केंद्र बिंदु कही न कही घूम कर पाकिस्तान और हिन्दू मुस्लिम मुद्दों पर ही आना चाहिये।
हकीकी ज़मीन पर देखे तो हम यानी मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है। इसी विश्वसनीयता को खोने का नतीजा ये है कि पहले नेता और अब आम नागरिक साफ़ साफ़ कहते है बिकाऊ मीडिया। बुरा भी लगता है, ज़िन्दगी के लम्बे अरसे को लगातार मीडिया के हवाले करने के बाद ये तमगा अगर मिले तो कुछ बुरा तो लगता है। मगर बात वही आकर रुक जाती है कि हम कही न कही से अपनी विश्वसनीयता को खो रहे है। जनता समझदार तो पहले भी थी और अब और ज्यादा समझदार हो जाने के बाद हमारे ऊपर जो तमगा लगा है उसको झेलना पड़ेगा। स्थिति ऐसी ही रही तो वह दिन दूर नही जब खबर दिखा कर कहना पड़ेगा “माँ कसम इस बार सच कह रहा हु, मेरी बात का इस बार यकीन कर लो।”
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