राज खन्ना
गिनती ने मोहर लगाई। पर राहुल गांधी ने अमेठी की हार की इबारत लड़ाई शुरु होने के पहले ही पढ़ ली थी। चालीस साल से परिवार की अमेठी ने उन्हें लगातार तीन बार संसद भेजा। चौथे मौके पर वह अकारण वायनाड से नही जुड़े। नतीजों ने उनकी आशंका को सच साबित किया। वैसे गांधी परिवार पहली बार अमेठी में नही हारा है। 1977 की जनता लहर में संजय गांधी अपना पहला चुनाव वहां से हारे थे। दिलचस्प संयोग है। 21 वर्ष के अंतराल पर गांधी कुनबे के प्रचार के बीच पारिवारिक मित्र कैप्टन सतीश शर्मा 1998 में पराजित हुए। 1998 और 2019 के बीच फिर 21 साल का फासला है। अब राहुल गांधी को अमेठी ने मायूस किया।
राहुल को यह मायूसी सिर्फ अमेठी से नही मिली है। उनके नेतृत्व को पूरे देश ने खारिज किया है। लेकिन हार की इस निराशा के बीच अमेठी का संदेश बड़े अर्थ छोड़ रहा है। किसी क्षेत्र को कोई परिवार अपनी जागीर न समझे। एक सांसद के तौर पर राहुल अमेठी में कभी लोकप्रिय नही रहे हैं। परिवार के कारण बेशक उनका कद बड़ा है लेकिन एक सांसद के तौर पर उनकी भूमिका निराशाजनक रही है। अमेठी में उनकी सबसे बड़ी पूंजी अपने दिवंगत पिता स्व. राजीव गांधी की समृद्ध विरासत थी। वहां जब तक राजीव गांधी के नाम की भावनाओं की लहरें उठती रहीं, वे उन्हें संसद भेजती रहीं। जब ठहर गईं तो उन्हें दूसरा आसरा ढूंढने के लिए सचेत कर दिया। यह 2014 था। जब राहुल के वोटों में 2009 की तुलना में तक़रीबन पच्चीस फीसद की कमी आयी थी। फिर भी वह जीत गए थे। राहुल ने मतदाताओं की इस चेतावनी की अनदेखी की। उनसे पराजित स्मृति ईरानी ने इसे लपक लिया। वह हारकर भी लगातार पांच साल तक अमेठी में डटीं- जुझीं। बेशक वहां मोदी का नाम था। सत्ता के जरिये वे सारे शस्त्र सुलभ थे , जिनका प्रयोग वहां गांधी परिवार पहले करता रहा है। लेकिन इस जीत में स्मृति के काम और मेहनत की बड़ी भूमिका है। मोदी-मोदी के शोर में उन्हें इसके यश से वंचित नही किया जाना चाहिए।
राहुल पर पार्टी को जिताने की जिम्मेदारी थी। जब वह खुद ही हारे तो उनका नेतृत्व किसे जिता सकता है ? डेढ़ दशक के भीतर वह लगातार पार्टी को निराश करते रहे हैं, लेकिन छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान की हाल की जीत के बाद पार्टी उत्साहित थी और लोकसभा चुनाव को लेकर उसकी उम्मीदें बढ़ी हुई थीं। इन उम्मीदों को सच में बदलने की मंशा से ही गांधी परिवार ने अरसे से संजो के रखे अपने ब्रह्मास्त्र प्रियंका गांधी को भी अमेठी, रायबरेली से इतर मैदान मे उतार दिया । यह मुट्ठी जब तक बन्द थी तब तक लाख की थी। खुली तो खाक की साबित हुई। प्रियंका अमेठी के लिए नई नही थीं। 1999 से वह अमेठी-रायबरेली देख रही थीं। उनकी सक्रियता के बीच विधानसभा में वहां कांग्रेस हारती रही है। इस बार लोकसभा की हार ने बाकी कसर भी पूरी कर दी। पूर्वी उत्तर प्रदेश की उन पर औपचारिक जिम्मेदारी थी। घूमीं वह देश के अनेक हिस्सों में। हर जगह से निराशाजनक नतीजों ने उन्हें चमकने से पहले ही हाशिये पर ढकेल दिया।
कांग्रेस की उम्मीदें गांधी परिवार से जुड़ी रहती है। दिलचस्प है कि बाकी देश भले ठुकराए लेकिन पार्टी इस परिवार के नेतृत्व पर सवाल नही खड़ी करती। उम्मीद नही है कि इस हार के बाद भी देश की सबसे पुरानी पार्टी उस छाया से भिन्न कोई रास्ता तलाशेगी ? बेशक किसी चुनाव की हार पराजित पार्टी या उसके नेतृत्व पर विराम नही लगा देती। लेकिन मतदाता यदि बार-बार किसी नेतृत्व को खारिज करें तो उसका अनुकरण करने वालों को संदेश समझना होगा। इस देश के चुनावों में ” चेहरे ” बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं। फ़िलहाल कांग्रेस का पर्याय समझा जाने वाला” गांधी परिवार का चेहरा ” बेनूर हो चला है। इस चेहरे को मतदाताओं ने बाद में ठुकराया। उससे पहले ही नरेंद्र मोदी को परास्त करने के लिए निकले तमाम गैर भाजपाई योद्धाओं ने इस चेहरे के नेतृत्व को अस्वीकार करके बता दिया कि देश की राजनीति में गांधी परिवार अब कहने को बड़ा नाम रह गया है।
नोट – लेखक राजनितिक विचारक है. लेख में लिखे गए शब्द लेखक के अपने खुद के विचार है. PNN24 न्यूज की इसमें किसी प्रकार की सहमती अथवा असहमति नही है.
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