बापूनन्दन मिश्र
थलईपुर (मऊ) सावन का महीना अपनी रिमझिम फुहारों, हरियाली, उमंग और उल्लास के साथ -साथ बागों में पड़े झूलों के संग अठखेलियां करती युवतियों की टोलियों एवं इन सभी के बीच सुरीले स्वरों में गूँजने वाली कजरी की उस मिठास केलिए जाना जाता है।जो कानों के रास्ते से हृदय में उतर कर रोम-रोम को पुलकित कर देती है। किन्तु आज आपाधापी की जीवन शैली में सावन की यह रौनक किताबी कहानी बनकर रह गई है। लोक संगीत की समृद्ध भारतीय संस्कृति में सावन के महीने में गाई जाने वाली कजरी अपनी मधुर धुन एवं गीत के बोलों मे नायक-नायिका के मिलन, बिरह एवं प्रणय निवेदनो को खूबसूरती से प्रदर्शित करने के लिए जानी जाती है।और शायद इसी लिए लोकप्रिय भी है।कुछ वर्षों पूर्व तक गाँवों में सावन के आते ही पेड़ो पर झूले पड़ जाते थे शाम होते ही अपने घरेलू कार्यों से निवृत्त होकर महिलाओं का झूले के पास इकट्ठा होना और फिर कजरी की मीठी स्वरलहरियों के साथ झूले पर पेंग बढाना।झूलने वालों के साथ ही सुनने वालों के अन्तर्मन को भी तृप्त कर देता था।किन्तु आज के दौर में यह सब कुछ एक सुखद किस्सा बनकर रह गया है। अब तो शायद गाँवों के न तो वे पेंड़ रहे, न उनपे झूले डालने वाले एवं झूलने वाले लोग रहे। टी.वी., मोबाईल एवं अन्य दृश्य- श्रब्य यंत्रों मे सुनाई देने वाली कजरी और झूले ही सावन के होने का एहसाश करा रहे हैं।
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