बृजेश कुमार
सरकार ने पंचायती राज में महिलाओं को आरक्षण देकर उन्हें सशक्त बनाने की पहल की हैं। सरकार को उम्मीद थी कि महिलाएं पंचायती राज में पंच बनकर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर गांव के विकास में अपनी भागीदारी निभाएंगी। वे गांव की मुखिया बनकर गांव की सरकार चलाएंगी, लेकिन एेसा होता दिखाई नहीं दे रहा हैं। गांव की जनता ने जिस नारी को सरपंच बनाया वह पंच ही रह गई और पति परमेश्वर बन गांव की सत्ता चला रहे हैं।
जी हां गांव की मुखिया बनने के बाद भी 95 फीसदी महिलाएं घर की दहलीज पार कर बाहर नहीं निकल सकीं हैं। ग्राम सभा की बैठक से लेकर गांव की चौपालों में जनता की समस्याएं सुनने की जिम्मेदारी सरपंच पति या पुत्र ही निभा रहे हैं और जनता भी उन्हें ही प्रधान जी के नाम से संबोधित भी कर रहे हैं।
पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं का स्तर सुधारने तीन साल पूर्व सरकार ने पंचायतीराज में हिस्सेदारी तय कर दी। इससे लगा था कि जनप्रतिनिधि बनने से महिलाओं का जीवन स्तर सुधरेगा, लेकिन एेसा हुआ नहीं। महज 5 फीसदी महिलाएं ही एेसी हैं जो बिना पति व परिवार के अपने दम पर गांव व नगर की सरकार चला रही हैं।
चूल्हा चौका से नहीं छूटा नाता
जिले की त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था में भागीदारी महिलाओं की है। पंचायत से लेकर जिला पंचायत एवं नगर परिषद से लेकर नगर निगम तक महिला शक्ति का दबदबा है। इसके बाद भी महिलाओं की सामाजिक स्थित नहीं बदली हैं। प्रधान, पंच-सरपंच जैसे पद पाकर भी 80 फीसदी महिलाएं चूल्हा चौका से बाहर नहीं निकल पाईं हैं, यहां तक की ग्रामसभा की बैठक में भी इन महिला जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति दर्ज नही होती हैं। केवल हस्ताक्षर तक ही सिमटी महिला प्रधानों की कहानी पंचायती राज में महिला सशक्तिकारण की जमीनी हकीकत को बयां कर रही है।
लेटर प्रधान का पति व पुत्र कर रहे हस्ताक्षर
पंचायती राज में महिला सशक्तिकरण की चौंकाने वाली स्थिति यह है कि सरपंच व अध्यक्ष होने के बाद भी वह अपने कामकाज से अंजान हैं। जिला पंचायत के अध्यक्ष सहित गांवों की पंच तक हर काम उनके पति व पुत्र देखते हैं। बैंठकों से लेकर जिला कार्यालय तक हर जगह पति या पुत्र ही फाइल लेकर जाते हैं। चौंकाने वाली हकीकत तो यह है कि सरकारी दस्तावेजों में जिले की 60 फीसदी महिला प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर भी उनके पति या पुत्र ही करते हैं।
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