आफताब फारुकी
नई दिल्ली: लन्दन से प्रकाशित होने वाली बहुचर्चित और एक सम्मानित पत्रिका है ‘द इकोनॉमिस्ट’। इस पत्रिका ने इस बार की कवर स्टोरी से खुद को चर्चा का केंद्र बना लिया है। पत्रिका की कवर स्टोरी ‘इंटोलरेंट इंडिया, हाउ मोदी इज़ एंडेंजरिंग द वर्ल्ड्स बिगेस्ट डेमोक्रेसी’ (असहिष्णु भारत, मोदी कैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को ख़तरे में डाल रहे हैं) है ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है।
उसमें लिखा है कि भारत के 20 करोड़ मुसलमान डरे हुए हैं क्योंकि प्रधानमंत्री हिंदू राष्ट्र के निर्माण में जुटे हैं। इसमें कहा गया है कि नागरिकता संशोधन क़ानून एनडीए सरकार का एक महत्वाकांक्षी क़दम है। लेख में कहा गया है कि सरकार की नीतियां नरेंद्र मोदी को चुनाव जीतने में मदद कर सकती हैं लेकिन वही नीतियां देश के लिए ‘राजनीतिक ज़हर’ हो सकती हैं।
साथ ही यह भी कहा गया है कि संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को कमतर करने की प्रधानमंत्री मोदी की नई कोशिशें भारत के लोकतंत्र को नुक़सान पहुंचाएंगी जो दशकों तक चल सकता है। ‘द इकोनॉमिस्ट’ के लेख में कहा गया है कि धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर विभाजन पैदा करके बीजेपी ने अपने वोट बैंक को मज़बूत किया है और गिरती अर्थव्यवस्था से ध्यान हटाया है। इसके साथ ही पत्रिका में लिखा गया है कि एनआरसी से बीजेपी को अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद होगी। इस स्टोरी के प्रकाशन से नाराज़ कई भाजपा नेताओं ने ट्वीट कर मैगजीन के कवर पेज की निंदा किया है।
गौरतलब हो कि ‘द इकोनॉमिस्ट’ ग्रुप की इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट ने ही इसी हफ्ते ‘ग्लोबल डेमोक्रेसी इंडेक्स’ की लिस्ट जारी की थी। इस लिस्ट में भारत 10 स्थान गिरकर 51वीं पोजिशन पर आ गया है। सूची के मुताबिक, 2018 में भारत के अंक 7।23 थे, जो 2019 में घटकर 6।90 रह गए हैं।
भारत की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ इस लेख में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी प्रशंसा की गई थी। साथ ही उम्मीद जताई गई थी कि वो मार्केट में बदलाव लाएंगे। साथ ही इसमें सलाह दी गई थी कि मोदी को विश्व के मज़दूर क़ानूनों को आसान करने के लिए राष्ट्रीय अभियान चलाना चाहिए।
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