तारिक आज़मी
गुजिस्ता 24 घंटे या फिर कह सकते है कि शायद इससे ज्यादा यानी कल से लेकर आज अभी तक मैंने अपनी मातृभाषा दिवस को दिल खोल कर मनाया है। आप अच्छी तरह से इस बात से वाकिफ है कि मेरी मातृभाषा यानि मादरी जुबां उर्दू है। वैसे भी लोग नामो में मज़ह की तलाश कर लेते है। तो फिर ये तो आम मसला हुआ कि मेरी मादरी जुबां क्या है ? महज़ दो लफ्जों में खुद की मादरी जुबां का बयान कर देने से न तो आप उससे दूर हो जायेगे और न ही आपसे वह दूर हो जाएगी। आप कोई भी भाषा बोले चाहे वह उड़िया हो, तमिल हो हिंदी हो या फिर भोजपुरी हो। भाषा सभी मुहब्बत की इबरत देती है। आप सिर्फ इतना कहकर खुद को उस जुबां ने जुदा नही कर सकते है कि आपकी मातृभाषा फलां है।
बहरहाल गर हम मातृभाषा पर गुफ्तगू कर रहे है तो जैसा आप सबको मालूम ही है कि मेरी मातृभाषा उर्दू है। आज एक कोशिश करता हु कि जुबां शिरी मुल्क गीरी के तर्ज पर आप से चंद कलिमात किया जाए। वैसे तो हम गुफ्तगू ख्वाब्गाहो से लेकर शहर-ए-खामोशा तक की कर सकते है। मगर लफ्जों को भी तकलीफ न हो इसीलिए कुछ चराग-ए-सुखन की बात हो जाए। वैसे तो उर्दू एक बेहद तहजीब की जुबां है जहा गाली जैसे लफ्जों के लिए भी अलफ़ाज़-ए-गलीज़ा या फिर बदजुबानी जैसे लफ्जों से काम चलाया जाता है। मगर आप गौर-ओ-फिक्र करे तो आपको मालूम पड़ जायेगा कि इस जुबां ने अपनी ज़मीने लगभग छोड़ दिया है।
आपको इसी मुल्क में ऐसे भी घराने मिलेंगे जिसमे मादरी जुबां तो उर्दू है मगर उनसे चंद उर्दू के अल्फाजो को तलफ्फुज भी सही से नहीं हो पायेगा और आप बसाखता बोल उठेगे कि जनाब का तलफ्फुज पूरी तरह फुस्स हो चूका है। ऐसा नहीं है कि हालात शुरू से ऐसे ही थे। मुल्क में आजादी के बाद भी लिखावट से लेकर बोल चाल की जुबां उर्दू हुआ करती थी। मगर धीरे धीरे ये जुबां अपनी ख़ामोशी अख्तियार करने लगी। तत्कालीन सपा सरकार ने पुराने कागजातों के लिए उर्दू अनुवादको की भर्ती किया था। सूबे में काफी नवजवान जो उर्दू की तालीम लिए थे ने अपने रोज़गार का जरिया पाया और नौकरीशुदा हो गए। मगर इसके बाद भी उर्दू की बदहाली नही रुकी और रोज़-ब-रोज़ ये कमज़ोर ही होती गई।
मुनव्वर राणा के कलाम “मुख़्तसर सी ही सही ज़िन्दगी बढ़ जाएगी, माँ की आँखे चूम लीजिये, रोशनी बढ़ जाएगी।” से लेकर राहत इन्दौरी के “हमारी मुह से जो निकले वही सदाकत है, हमारे मुह में तुम्हारी जुबां थोड़ी है।” जैसे अमूमन बोलचाल के अल्फाजो वाली उर्दू के मायने काफी लोग लुगद या फिर गूगल बाबा के सहारे तलाशते हुवे वाह कह उठाते है। मगर शायरी के शौक़ीन नवजवानों के एक बड़े तबके को ग़ालिब के कलाम तो पसंद है और शौक से सुनते है, मगर “चिपक रहा है बदन पर लहू संग पैराहन, हमारे जेब को अब हाजत-ए-रफू क्या है?” जैसे कलाम के लफ्जों का मायने तलाशना पड़ता है।
कुछ ऐसे लोग भी है जो उर्दू को गैर मुल्की जुबां समझने की खता करते रहते है। ज़ेहन में इस मामले में यह बताते चले कि उर्दू गैर मुल्क की जुबां नही है बल्कि इस जुबां को हमारे खुद के मादरे वतन हिन्दुस्तान ने ही दिया है। दुनिया को मौसिकी हमारे इसी दिल-ओ-जान से प्यारे मुल्क ने दिया तो उर्दू भी इसी मुल्क ने दिया तब लोगो को ग़ज़ल और अशआर मिले है। वरना इसके पहले तो फ़ारसी जैसे लफ्जों की चाशनी में डूबा कर अशआर पढ़े और लिखे जाते थे। मैंने आपको कहा कि जुबां यानी भाषा कोई भी हो उससे मुहब्बत करे। इसी बहाने ही सही कम से कम आप अपनी मादरी जुबां को याद तो रखेगे। आप सभी को मातृभाषा दिवस की हार्दिक शुभकामनाये।
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