तारिक आज़मी
आपको विकास दुबे याद है। रहेगा भी, शायद दशको तक विकास दुबे को याद रखा जाए, क्योकि मरने वाले के पास एक नाम था। काफी जद्दोजहद के बाद एक नाटकीय तरीके से पकड़ा गया विकास दुबे और उससे भी अधिक नाटकीय तरीके से उसका मारा जाना। भले ही एनकाउंटर पर लाख सवाल पैदा हुवे है। सवालो का जवाब तलाशने में शायद दशक बीत जाए मगर जवाब नही मिलेगा कि आखिर गाडी की कैसे दुर्घटना हुई कि शीशे बाहर से टूटे वह भी इस तरीके से कि देखने में टुटा हुआ दिखाई नही दे रहा था।
शायद इस सवाल का भी जवाब दशको तक न मिल पाए की गाडी में सवार पुलिस कर्मी घायल हो जाते है। इतना घायल कि उनकी खुद की पिस्टल एक लंगड़ा विकास दुबे छीन लेता है। फिर भी विकास दुबे क्या शक्तिमान था जो उसको दुर्घटना में चोट नही आई अथवा किसी साउथ फिल्म का एक्शन सीन चल रहा था और विकास दुबे बिना घायल हुवे गाडी से बाहर निकलता है वह भी उलटी हुई गाडी से पीछे और आगे चल रही गाडी के सवार पुलिस वाले लगभग 100 मीटर तक उसका पीछा करते है। एक लंगड़ा विकास दुबे 100 मीटर दुर्घटना के बाद भी भाग लेता है। वैसे भी हमारा मकसद सवालो के जवाब तलाशना नही है क्योकि हमको मालूम है इन सवालो के जवाब नही मिलेगे। हां ये ज़रूर है कि दशक तक विकास दुबे के बारे में बात हो सकती है।
ऐसा नही है कि न्यायालय छोड़ सड़क पर इन्साफ पहली बार हुआ है। ऐसा नही है कि सड़क पर हुवे इस इन्साफ की सराहना पहली बार हो रही है। ऐसा नही है कि पहली बार इस तरीके से हुवे इन्साफ को जनता सराह रही है और पुलिस को मिठाई खिला कर माला पहना रही है। इसके पहले भी ऐसा हो चूका है। सडको पर इन्साफ हुआ है। स्टोरी भले फ़िल्मी समझ आये मगर हकीकत है। सडको पर इन्साफ हुआ और इस इन्साफ को करने वाले सराहे गए। उनकी आवभगत हुई। शायद ज्यादा वक्त नही गुज़ारा होगा जब हैदराबाद में एक महिला चिकित्सक के गैंग रेप के बाद हुई उसकी हत्या के बाद हत्यारोपियो का सड़क पर इन्साफ हुआ था।
शायद आपको उनके नाम भी नहीं याद होंगे। खुद सोचिये और बताइए कि मोहम्मद आरिफ, चिंताकुंता चेन्नाकेशावुलु, जोल्लु शिवा और जोल्लु नवीन आपको याद है क्या ? क्या इनका नाम आपने पहले सुना था। क्या कभी आपने इनके सम्बन्ध में कुछ पढ़ा था जो आज भी आपको याद हो। शायद नही। क्योकि ये सभी हाईटेक नही थे। इनमे से दो ट्रक ड्राईवर थे और दो खलासी थे। हैदराबाद गैंग रेप के ये चारों अभियुक्त थे। पुलिस ने गिरफ़्तारी के बाद सीन रेक्रियेशन के दौरान भागने के प्रयास का आरोप लगा कर इनका एनकाउंटर किया था। इस मामले की एसआईटी जाँच अभी भी जारी है और लोग घटना को भूल चुके है।
चलिए थोडा याद दिलवाता हु, तकरीबन आठ महीने पहले, शमशाबाद के पास एक नौजवान वेटरिनरी डॉक्टर की गैंगरेप के अगले दिन ही साइबराबाद पुलिस ने दो ट्रक ड्राइवरों और उनके दो हेल्परों को गिरफ़्तार किया था। गिरफ़्तार किए गए चारों लोगों पर उस महिला की गैंग रेप का आरोप लगाया गया था। इनका नाम मोहम्मद आरिफ, चिंताकुंता चेन्नाकेशावुलु, जोल्लु शिवा और जोल्लु नवीन था। छह दिसंबर को पुलिस इन चारों लोगों को मौका-ए-वारदात पर ‘तफ़्तीश के इरादे’ से ले गई। इसी जगह पर उस लड़की को जला दिया गया था। पुलिस ने दावा किया कि दो अभियुक्तों ने उनका रिवॉल्वर छीनने की कोशिश की, जिसके बाद उन्होंने सभी अभियुक्तों पर गोलियां चलाईं। हैदराबाद की उस गैंग रेप की घटना और उसके बाद हुए एनकाउंटर, दोनों ही मामलों को लेकर देश भर में बहस और हंगामा हुआ।
लेकिन चौंकाने वाली सबसे बड़ी बात ये थी कि लोगों ने अभियुक्तों के मारे जाने पर जश्न मनाया गया था। फिल्मों में जिस तरह से सड़क पर इंसाफ़ होते हुए दिखाया जाता है, उसके लिए बढ़ते समर्थन ने व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए हैं। शायद जनता के अन्दर से कानून के लचर व्यवस्था पर से विश्वास उठता जा रहा है जिसका नतीजा इस प्रकार के एनकाउंटर के साथ सामने आ रहा है। लोग जजमेंट आन स्पॉट की डिमांड करने लगे है। न कोई गवाह, न सबूत, न कानूनी अड़चन, न कोर्ट, न कचहरी। सीधे मौके पर ही फैसला हो जाना लोगो को पसंद आ रहा है।
निर्भय केस जिसने पुरे देश को उबाल कर रख दिया था। उसके इन्साफ में जितना वक्त लगा उसको देख कर लोगो के अन्दर और भी गुस्सा भर आया। एक वक्तव्य में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस रिटायर्ड गोपाल गौड़ा का कहना है कि, “पुलिस लॉकअप में कोई भी मौत (जैसा कि तमिलनाडु के तूतीकोरिन में हुआ था) हो या मुठभेड़ में, ये क़ानून के शासन का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन है। किसी को भी चाहे वो पुलिस ही क्यों न हो, क़ानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए।”
विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद एक बार फिर सडको पर होते इन्साफ को लेकर सवाल उठने लगे है। इसमें भी एक दिलचस्प मामला सामने आया है कि लोगो ने इसको सराहा है। मिठाई खिलाई गई है पुलिस वालो को। उनको माला पहनाया गया है। फिर कौन वो लोग है जो पुलिस के ऊपर ज़ुल्म का आरोप लगाते है। कही ये सडको पर होते इन्साफ को जनता पसंद तो नही कर रही है। या फिर सत्ता पक्ष में अपने पसंदीदा नेता की जयकार के कारण इसकी सराहना हो रही है।
इसमें सबसे सबसे अचंभित करने वाली बात ये रही कि दोनों ही घटनाओ के बाद पुलिस को फुल मालाओ से सम्मनित किया गया और उनको मिठाई खिलाई गई। आखिर कौन लोग है ये ? क्या सियासी स्टंट है। अथवा खुद को कैमरे पर लाने की कोशिश अथवा आम जनता है ये। अगर सियासी स्टंट अथवा खुद को कैमरे पर लाने की कोशिश है तो बात अलग है। मगर अगर आम जनता है तो प्रश्न बहुत ही गंभीर मुद्रा में जाता है कि क्या आम जनता को न्याय प्रक्रिया पर से भरोसा उठा गया है। क्या लोग कोर्ट कचहरी के थका देने वाले सफ़र से ऊब चुके है। इन्साफ मिलने में देरी से लोगो के अन्दर इन्साफ सडको पर करने की चाहत बढती जा रही है। अगर ऐसा है तो फिर आँख के बदले आँख लेने के इस फैसले के बाद एक दिन पूरा समाज ही बिना आखो का हो जायेगा।
बहरहाल, सडको पर होता इन्साफ किसी भी सभ्य समाज के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है। ठीक है कि पुलिस का मनोबल होना चाहिए और विकास दुबे जैसे अथवा हैदराबाद के कुकर्मियो के लिए मौत ही आखरी इन्साफ था। मगर इस तरीके से क्या सड़क पर इंसाफ होगा। या फिर संवैधानिक प्रक्रिया के तहत अदालत इंसाफ करेगी। सोचना हमको आपको है कि हमें अदालत और संविधान से इंसाफ चाहिए या सड़क पर।
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