मो0 कुमैल
कानपुर. वाङ्गमय पत्रिका और विकास प्रकाशन के संयुक्त प्रयास से आज व्याख्यानमाला में प्रोफ़ेसर संतोष भदौरिया ने अपने विचार रखते हुए कहा कि एक विचार के रूप में साझी संस्कृति औपनिवेशिक काल में पनपी। हमारा साझापन काफी पुराना है। पर दैनिक जीवन की चर्चा का हिस्सा 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में बना जेम्स मिल के बिट्रिश भारत का इतिहास ने भारतीय इतिहास को हिंदू और मुस्लिम काल के रूप में बाँटकर देखा।
मीडिया और सिनेमा आज साझेपन को पेश न करके, लगभग एक ही तरह की संस्कृति को पेश करता आ रहा है। साम्प्रदायिकता जब फैलती है तो साझी संस्कृति की अवधारणा को बार-बार तहस-नहस करने की कोशिश करती है। सिनेमा ने मुस्लिम संस्कृति से एक खास तरह की दूरी बना ली है। चंपारन की घटना, गांधी का नीला आंदोलन, ‘बतख मियां’ अंग्रेज अफसर गांधी को जहर देना चाहते थे। राजेन्द्र प्रसाद को चुपके से बता दिया। जेल में डाला गया। गांधी का हम बतर्ना था बतख मियां। पे साझी लड़ाई थी। 1857 के पहले टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से मोर्चा ले लिया था। तात्याटोपे, नानाजी पेशवा, बेगम हजरत महल, पृथ्वी सिंह बहादुरशाह जफर, कुंवरसिंह सब साथ लड़े। रानी लक्ष्मीबाई की इस साझेदारी को तोड़ने की हर कोशिश की गई।
हिंदू राजाओं को पड़ोसी मुस्लिम राजाओं के खिलाफ भड़काने की कोशिश की गई। 1800 में ही फोर्ट विलियम काॅलेज की स्थापना की गई। हिंदी, उर्दू के दो अलग-अलग मर्कज बताए गए। दोनों भाषाओं की साझी बुनियाद को खत्म किया गया। जॉन गिलक्रिस्ट ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। भाषा को धर्म से जोड़ दिया गया। उसको हवा दी गई। उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहा गया। इस भाषा सम्बन्धी बँटवारे को कुछ इस दौर के पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ पा रहे थे। इसी दौरान सर सैय्यद अहमद खाँ और राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद आमने-सामने खड़े हो गए। न भाषा सम्बन्धी बंटवारे की नीति को मौलाना अबुल कलाम आजाद समझ रहे थे और मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली साफ-साफ कहते हैं- ‘‘नौकरी ले दे के अब ठहरी है औकात अपनी
पेशा समझे थे जिसे हो गई वो जात अपनी
अब न दिन रहा अपना और न रात अपनी
जा पड़ी गैर के हाथ में हर एक बात अपनी
हाथ अपने दिल आजाद से हम धो बैठे
एक दौलत थी हमारी सो उसे खो बैठे।’’
साझी विरासत को बनाने में ग़ालिब, अकबर इलाहाबादी मीर तकी मीर का योगदान है। मौलाना अबुल कलाम आजाद स्पष्ट शब्दों में कहते हैं ‘‘मुसलमानों को अगर कांग्रेस में शरीक होना चाहिए तो सिर्फ इसलिए कि फर्ज अदा करने का तकाजा यही है और इसका आधार आत्मविश्वास है न कि किसी ताकत की खुशामद या किसी ताकत से अंदेशा।’’ आजादी के बाद उन्होंने गांधी, नेहरू के साथ रहकर देश को बनाने में सहयोग दिया। आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदू-मुस्लिम साझेदारी को हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के रहनुमाओं ने तोड़ने की बार-बार कोशिश की। मगर कामयाब नहीं हुए। इस व्याख्यान माला के अंतर्गत देश-विदेश के विद्वान, शोधार्थी और विद्यार्थी शामिल हुए
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