तारिक़ आज़मी
चंद रोटी के लुक्मो की तलाश और जद्दोजेहद इनके कदमो को परदेस लेकर चली गई थी। इन चंद लुक्मो की भूख कुछ भी करवा देती है। सुबह कमाना शाम को कमाना बच्चो की परवरिश करना और खुद और परिवार का पेट भर कर सो जाना। दुसरे दिन फिर सुबह तडके उठकर वही पुरानी ज़िन्दगी में लौट जाना और रोटी की तलाश में दिन भर जी तोड़ मेहनत करना। भले कुछ सियासत के फेके हुवे पैजामो में अपनी टांग घुसेड कर सोशल मीडिया पर ज्ञान बघारने वाले कथित क्रन्तिकारी ये कहे कि परदेस में रहकर इतना भी न कमाया कि दो चार महीने बैठ कर खा सके। मगर उनके लफ्जों को ध्यान न देना इन परदेसी लोगो के लिए कोई बड़ी बात नही है।
मुंबई के लोकमान्य तिलक टर्मिनल के फोटो इस खौफ को बयान करने को काफी है। मुंबई से आपके शहर में आने वाली ट्रेनों की भीड़ भी इस खौफ को बयाँ कर रही है। आप गौर से देखे इन ट्रेनों की भीड़ को। सोशल डिस्टेंस और मास्क ज़रूरी के नारे ने इन ट्रेनों में धज्जियाँ अपनी उडवा रखा है। इन मुसाफिरों को बस एक ही डर है कि कही दुबारा तालाबंदी न हो जाए। कही हम फिर से परदेस में न फंस जाए। उनको न कोरोना से डर है और न किसी और बात का आप तस्वीरे देखे खुद समझ जायेगे। आप वीडियो देखे खुद समझ जायेगे कि इनको खौफ सिर्फ और सिर्फ एक बात का है कि कही तालाबंदी दुबारा न हो जाए। कही ऐसा न हो कि हम दुबारा परदेस में फंस जाए। कम से कम अपने आशियाने को पहुच जाये ताकि दो वक्त की रोटी किसी तरह चल जाए।
सोचिये आप, गरीबी का मज़ाक तो बनाया जा सकता है। मगर आज़ादी जब बुज़ुर्गी के तरफ बढ़ चुकी है तो फिर ऐसे हालात कैसे हो सकते है आप सिर्फ सोच सकते है। मगर हकीकत ये है कि सब आपके आँखों के सामने है। खुद देखे। इनके दर्द को महसूस करे। उस तकलीफ को महसूस करे जो परदेस में होने के बाद होता है। जब कोई अपने जिले का अजनबी भी मिलता है तो ऐसा लगता है जैसे कोई अपने सगे वाला मिल गया हो। मगर साथ में उस दर्द का भी अहसास करे जो ये परदेसी अपने दिलो में समेटे है। आप सोचिये कि आखिर इस तरीके से बिना किसी टेस्ट के आपके शहर में आपकी बस्ती में लोग आ रहे है। क्या हालात होंगे खुद सोचे।
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