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अरशद आलम की कलम से : पुलिस का भी ‘दर्द’ समझिए साहब, काम के बढ़ते बोझ ने पुलिस वालों में ‘इंसान’ होने के भाव ही खत्म कर दिया है

अरशद आलम

उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था का सवाल पिछले कई सालों से विधानसभा चुनाव में राजनैतिक बहस का मुद्दा बनता रहा है। लेकिन, इस बात पर राजनीति में कभी कोई बहस नहीं होती कि आखिर कानून का शासन स्थापित करने में लगे लोगों-खासकर ’पुलिस’ के सिपाहियों-दारोगाओं की मानवीय गरिमा को सुनिश्चित कैसे रखा जाए? कानून व्यवस्था के खात्मे का रोना सभी दल भले ही रोते हों, लेकिन कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी उठाने वाले पुलिस के इन सबसे निचले स्तर के जवानों के दुख दर्द उनकी बहस का हिस्सा नहीं होते हैं। पुलिस के कर्मचारी चाहे जितने जोखिम और तनाव में काम करें लेकिन उन्हें इंसान समझने और उसकी इंसानी गरिमा सुनिश्चित करने की ’भूल’ कोई भी राजनैतिक दल नहीं करना चाहता है।

गौरतलब है कि अन्य राज्यों के मुकाबले उत्तर प्रदेश में प्रति पुलिसकर्मी सबसे ज्यादा आबादी रहती है। जहां तक इसके संख्या बल का सवाल है-यह रिक्तियों की भीषण कमी से साल दर साल लगातार जूझ रही है। पुलिस थानों का हाल यह है कि कई थाने अपनी कुल स्वीकृत पुलिस बल के आधे से भी कम संख्या पर किसी तरह से अपना काम चला रहे हैं। पुलिस के पास आने वाली शिकायतों की जांच के लिए दारोगा की जगह सिपाही भेजकर काम चलाया जा रहा है। यह सब पुलिस के प्रोफेशनलिज्म का न केवल मजाक है बल्कि कानून सम्मत भी नहीं है। जाहिर है इससे पीड़ित के लिए इंसाफ पाने की प्रक्रिया भी गंभीर तौर पर बाधित होती है यही नहीं, साल दर साल जिस तरह से पुलिस की जिम्मेदारियां और कार्यक्षेत्र बढ़ रहा हैं, ठीक उसी अनुपात में उसका संख्या बल लगातार घटता जा रहा है। कार्य बल में लगातार हो रही कमी पुलिस की कार्यक्षमता पर बहुत ही नकारात्मक असर डाल रही है। इससे एक तरफ अपराध नियंत्रण में मुश्किल तो होती ही है, पुलिस के कर्मचारियों पर काम का दबाव भी काफी बढ़ जाता है। काम के इसी दबाव के कारण पुलिस वाले आज अपनी मानवीय गरिमा को ’भूल’ चुके हैं और शारीरिक तथा दिमागी रूप से बीमार होते हुए लगातार ’हिंसक’ हो रहे हैं। बिना अवकाश के लगातार ’ड्यूटी’ करने वाले पुलिस वालों को मैंने बहुत नजदीक से देखा है। वे सब गंभीर रूप से ’अवसाद’ का शिकार हो रहे हैं।

पुलिस महकमे में सब इंस्पेक्टर का पद बहुत ही जिम्मेदारी भरा होता है। इस समय जो हालात हैं उसमें एक सब इंस्पेक्टर के पास औसत दस से ग्यारह मुकदमों की विवेचना लंबित है। यह सब पुलिस वालों में अपने कर्तव्य पालन को लेकर एक गंभीर ’तनाव’ पैदा करता है। जाहिर है काम के बढ़ते बोझ ने पुलिस वालों में ’इंसान’ होने के भाव को ही खो दिया है। हर वर्ष लगभग चार प्रतिशत कार्यबल पुलिस सेवा से सेवानिवृत्त और बर्खास्तगी इत्यादि कारणों से स्टाफ से हट जाता है। लेकिन इसकी भरपायी के बतौर नयी भर्तियां नहीं की जाती हैं। इससे मौजूदा स्टाॅफ पर और ज्यादा बोझ बढ़ जाता है जो कि ’तनाव’ पैदा करता है। इस तनाव का असर जवानों की जीवनशैली में भी साफ देखा जाता है। डिप्रेशन और अथाह काम के इस बोझ ने पुलिसकर्मियों को ’बीमार’ बना दिया है। बस वे बोझ ढोने वाले ’गधों’ में तब्दील हो गए

जिम्मेदार इस समस्या पर बात क्यों नहीं करना चाहते? आखिर पुलिस वालों में इंसान होने के स्वाभाविक गुणों के विकास की जगह उनका खात्मा करने में तंत्र इतना ’तत्पर’ क्यों है? आखिर पुलिस के जवानों के सामाजिक और मानवीय ’गुण’ को प्रायोजित तरीके से सत्ता खत्म करने पर क्यों जुटी है? आखिर उसे क्यों केवल एक डंडाधारी आज्ञापालक जवान ही चाहिए, बिल्कुल मशीन की तरह से कमांड लेने वाला?

वर्तमान समय में कार्यस्थल पर जिस यंत्रणा पूर्ण हालात से पुलिस कर्मियों का सामना हो रहा है, उससे तत्काल निपटने की कोई ठोस रणनीति दिख नही रही है, थकी हारी पुलिस एक स्वच्छ और न्यायपूर्ण प्रशासन नहीं दे सकती। सरकार को चाहिए कि वह पुलिस वालों की इंसानी गरिमा को सुनिश्चित करने की दिशा में पहल करें। इसके लिए सबसे पहले सप्ताह में एक दिन आवश्यक रूप से अवकाश देने की व्यवस्था को तत्काल लागू किया जाए। यह अवकाश सभी पुलिस कर्मियों के लिए अनिवार्य हो और इसे वे अपने परिवार और बच्चों के साथ समय बिता पाएं

इससे इतर, उनके लिए काम के घंटे फिक्स किए जांए ताकि उनका व्यक्तिगत जीवन भी पटरी पर लौटे। यह सब पुलिस कर्मियों में काम के बोझ को हल्का करेगा और उनके काम को आनन्द दायक बनाएगा। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकारों द्वारा कानून का राज स्थापित करने की बात के बावजूद पुलिस वालों को संवेदना युक्त बनाने का कोई विचार नहीं दिख रहा है, जबकि जिम्मेदारी और जवाब देही के लिए यह बहुत जरूरी है। वक्त की मांग है कि अब इस पर तत्काल विचार किया जाए।

साभार : अरशद आलम के सोशल मीडिया पोस्ट से

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