शाहीन बनारसी
इंसान गुज़र जाता है। उसकी पहचान नेस्त-ओ-नाबुत हो जाती है। मगर फिर भी लोग कहते है कि इंसान अमर होता है। अब यहां पर कभी-कभी ये नहीं समझ आता है कि आखिर अमर क्या है? हक़ीकत ये है कि अमर इंसान के काम और उसके अलफ़ाज़ होते है। मगर फिर भी कुछ ऐसे लोग भी इस दुनिया में है, जिनके लफ्ज़ तो बेशक आज भी अमर है मगर उनकी पहचान और उनका इतिहास वक़्त की गुबार में खो कर रह गया है।
ऐसा ही एक नाम है फ़ना बुलंदशहरी जिनके लफ्जों के टुकडो पर आज भी बड़े-बड़े गायक अपना नाम, इज्ज़त, शोहरत और दौलत कमा रहे है मगर आज फ़ना बुलंदशहरी का नाम तक लोग नहीं जानते। ये वही शायर है जिनकी मशहूर ग़ज़ल “आँख उठी मुहब्बत ने अंगडाई ली” और “मेरे रश्क-ए-कमर” पर हम झूमते है और नाचते है मगर इन मशहूर गजलो के लेखक को हम नहीं जानते है। हमे भी काफी वक्त लगा, इसकी तलाश करने में कि आखिर इन मशहूर गजलो के अलफ़ाज़ किसके है?
एक शिद्दत की तलाश के बाद हमे फ़ना बुलंदशहरी के बारे में पता चला। गुमनामी के अँधेरे में सऊदी अरब में इन्तेकाल फरमाये और पकिस्तान के पंजाब प्रान्त में छोटे से टाउन आरूप में स्थित अपनी कब्रगाह में 3 नवम्बर 1989 से आराम फरमा रहे फ़ना बुलंदशहरी का इन्तेकाल 1 नवम्बर 1989 को सऊदी अरब में हुआ था। आज ही के दिन उनको सुपुर्द-ए-खाक़ किया गया था। इसी वजह से आज ये शाहीन अपने लफ्जों को परवाज़ फ़ना बुलंदशहरी को याद करते हुए दे रही है।
फ़ना बुलंदशहरी का असली नाम मुहम्मद हनीफ़ था। उनका जन्म कब हुआ? इसकी जानकारी तो लाख कोशिशो के बाद भी हमको नहीं मिल सकी। मगर ये ज़रूर है कि वह उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से ताल्लुक रखते थे और मशहूर शायर कमर जलालवी के शागिर्द थे। अगर तवारीख के पन्नो की धुल को बहुत ही शिद्दत से साफ़ करे तो ये समझ आता है कि मुल्क के बंटवारे के दरमियान फ़ना बुलंदशहरी शायद पकिस्तान गये होंगे या फिर उसके पहले 1945-46 में वह चले गए होंगे। इसकी कोई भी दलील हमको तवारीख में नहीं दिखी तो हमने तवारीख के पन्नो को और भी उल्टा पलटा, जहाँ से हमे ये मिला कि फ़ना बुलंदशहरी ने अबुल अलैय्या वंश के सबसे बड़े फकीर सूफी नकीबुल्लाह शाह से बैअत (शिष्य होने की इस्लामिक परंपरा) किया था।
अब सूफी नकीबुल्लाह शाह के तवारीख पर ध्यान दे तो वह वर्तमान के पाकिस्तान स्थित पंजाब प्रान्त के थे। 1944 में सूफी नकीबुल्लाह शाह बरेली आये थे। जहाँ उनसे मुहम्मद हनीफ यानी फ़ना बुलंदशहरी की मुलाकात हुई थी। फ़ना बुलंदशहरी उसके बाद सूफी नकीबुल्लाह शाह के साथ ही रहते थे। सूफी नकीबुल्लाह शाह 1945 में अपने शहर वापस चले गये थे। जिससे यह उम्मीद भी किया जाता है कि फ़ना बुलंदशहरी भी शायद उनके साथ ही चले गये होंगे। मगर हम एक बार फिर बताते चले कि तवारीख में हमको इसकी कोई भी दलील मिली नहीं है।
बहरहाल, फ़ना बुलंदशहरी के बारे में हमने इतनी जानकारी काफी मशक्कत के बाद निकाली है। फ़ना बुलंदशहरी का कलाम “आंख उठी मुहब्बत ने अंगडाई ली” को सबसे पहले मशहूर सूफी गायक नुसरत फ़तेह अली खान ने 1988 में पढ़ा था। इसी दरमियान नुसरत फ़तेह अली खान ने फ़ना बुलंदशहरी की गजल “मेरे रश्क-ए-कमर” भी पढ़ा था। तब से लेकर आज तक कई गायकों ने फ़ना की गजलो को पढ़ कर नाम, इज्ज़त, दौलत और शोहरत कमाई है। मगर किसी ने भी फना के बारे में कुछ ख़ास नही लिखा है। आइये फ़ना की याद में उनकी ग़ज़ल “आँख उठी मुहब्बत में” पढ़ते है।
आँख उठी मोहब्बत ने अंगड़ाई ली, दिल का सौदा हुआ चाँदनी रात में,
उनकी नज़रों ने कुछ ऐसा जादू किया,लुट गए हम तो पहली मुलाकात में।
दिल लूट लिया ईमान लूट लिया, खुद तड़प कर उन के जानिब दिल गया,
शराब सीक पर डाली, कबाब शीशे में, हम पे ऐसा जादू किया उनकी नज़रों ने…।
ज़िन्दगी डूब गयी उनकी हसीं आंखों में,
ज़िन्दगी डूब गयी उनकी हसीं आंखों में,
यूँ मेरे प्यार के अफ़साने को अंजाम मिला,
कैफियत-ए-चश्म उनकी मुझे याद है सौदा.
सागर को मेरा हाथ से लेना के चला मैं
हम होश भी अपना भूल गए,
ईमान भी अपना भूल गए,
इक दिल ही नहीं उस बज़्म में,
हम न जाने क्या क्या भूल गए।
जो बात थी उनको कहने की,
वो बात ही कहना भूल गए,
गैरों के फ़ंसाने याद रहे,
हम अपना फ़साना भूल गए।
वो आ के आज सामने इस शान से गए,
वो आ के आज सामने इस शान से गए,
हम देखते ही देखते ईमान से गए।
क्या क्या निगाह-ए-यार में तासीर हो गयी,
बिजली कभी बनी कभी शमशीर हो गयी।
बिगड़ी तो आ बनी दिल-ए-इश्क के जान पर,
दिल में उतर गयी तो नज़र तीर हो गयी,
महफ़िल में बार बार उन पर नज़र गयी,
हमने बचाई लाख मगर फिर उधर गयी।
उनकी निगाह में कोई जादू ज़रूर,
जिस पर पड़ी उसी के जिगर में उतर गयी।
वो मुस्करा कर देखना उनकी तो थी अदा,
हम बेतरह तड़प उठे और जान से गए।
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