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तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ : मुहब्बत की मेरी बस्ती में ये नफरत का सामान किसका है? नई सड़क पर ये आखिर पुराना मकान किसका है ?

तारिक़ आज़मी

समाज में नफरतो का दौर बढता जा रहा है। जो हमारी विचारधारा से विपरीत है हम पहले उसका विरोध करते थे। मगर अब समय बदल गया है और विरोध के बजाये हम अब नफरते तकसीम करने लगे है। नफरते भी ऐसे वैसी नही कि थोड़ी बहुत से काम चल जाए। नफरत ऐसी कि दुसरे की मौत का सपना देखा जाये और वह भी सरे बाज़ार। इस नफरत को आप हिकारत की नज़र से देखते है अगर, तो बेशक आप के अन्दर एक संजीदा इंसान आज भी है। अगर आपको ऐसी नफरते अच्छी लगती है तो माफ़ कीजियेगा आप खुद को सामाजिक प्राणी ही सिर्फ समझे। वैसे सामाजिक प्राणी तो किताबे उन जानवरों को भी कहती है जो झुण्ड में रहते है।

कहते है कि इंसान की सबसे अच्छी दोस्त किताबे होती है। आज बेशक किसी नई किताब की तलाश होनी चाहिए जो मुहब्बतों के नुस्खे सिखा सके। कभी कभी शर्म आती है कि लोग अपने मुफाद के लिए नफरतो को और भी खाद देकर बड़ा कर रहे है। एक भीड़ ही तो है जो इस नफरत के सौदागरों की दुकानों को चला रही है। बेशक हम्माम में सभी नंगे होंगे। वैसे भी बाथरूम में कोई रेनकोट पहन कर नही जाता है फिर आखिर मुहब्बत के हमारे शहर में ये नफरतो का सामान किसका है, ये नई सड़क पर पुराना मकान किसका है।

आज ऐसे ही नींद ने कहा देर से आउंगी। मैं समझ सकता हु शादी ब्याह का सीज़न है। कही उसकी भी दावत होगी और चली गई होगी दावत में। नया कुछ था नही तो सोचा सोशल मीडिया पर कुछ नज़रे दौड़ा लू। बेशक सोशल नेटवर्किंग साइट्स काफी जानकारी मुहैया करवा देती है। लम्बा अरसा हुआ था फेसबुक की मायावी दुनिया के सैर पर गए हुवे। फेसबुक को मायावी दुनिया ही मैं कहता हु। जहा बड़ी बड़ी बाते और दुसरे के लुकमे खुद खाते अक्सर चलन में रहता है। एक पोस्ट हमारे नज़र के सामने से गुज़री। देख कर रूह काँप गई। बेशक नफरतो का बहुत मुकाम देखा था। मगर इतनी नफरत सच से किसी को हो सकती है, मैं सोच भी नही सकता था।

विनोद दुआ किसी परिचय का मोहताज नाम नही है। आँखों पर चश्मे के बावजूद आँख से आँख मिला कर सवाल पूछने की क्षमता रखने वाले शख्सियत का नाम था विनोद दुआ। पत्रकारिता में निष्पक्ष और निर्भिक जैसे शब्द विनोद दुआ जैसे पत्रकारों के लिए ही बने हुवे है। सच मायने में विनोद दुआ के निधन से पत्रकारिता जगत का एक ऐसा नुक्सान हुआ है जो शायद कभी भर नही पायेगा। अब अगर इसमें अतिश्योक्ति जोड़े और सियासी अल्फाजो का इस्तेमाल करे तो कह सकते है कि पूरा देश उनके निधन से दुःख महसूस कर रहा है। अब आप कहेगे कि इसमें अतिश्योक्ति कहा से है। तो साहब बिलकुल है। क्या काबुल में सिर्फ घोड़े होते है। विनोद दुआ ने संघर्ष की पत्रकारिता किया और हमेशा पत्रकारिता के नियम “शासन सत्ता का विरोध” को ध्यान रखा।

इलेक्ट्रानिक मीडिया में बड़ा नाम था विनोद दुआ। पद्मश्री से सम्मानित पत्रकार के लिए किसी मायावी दुनिया के खुद को स्टार समझने वाले के दिल में नफरत हो सकती है, कम से कम हमारे समझ से तो बाहर की बात है। हाँ ये ज़रूर हो सकता है कि कोई उनके विचारो से सहमत न हो। वैसे भी हमारी भारतीय संस्कृति दुश्मन के मौत पर भी अफ़सोस ज़ाहिर करने की शिक्षा देती है। मगर संस्कृति की बाते उससे किया जा सकता है जिसके पास शिक्षा-दीक्षा हो। तालीम और तरबियत हो। ऐसे लोगो से संस्कृति की बात बेशक बेमायने होगी जिनका खुद का किरदार मरम्मत की दरकार रख रहा हो।

फेसबुक की मायावी दुनिया के खुद को स्टार समझने वाले एक सज्जन का मेरे एक मित्र ने पोस्ट मुझको भेजा था। आप इस आर्टिकल के साथ जो फोटो देख रहे है वह उन्ही की पोस्ट का स्क्रीन शॉट है। नाम इतना सुन्दर कि जग उजियारा हो जाये। कर्म और पोस्ट ऐसी कि इंसानियत पर भी कलक लग जाये। साहब की पोस्ट उस दिन की थी जब विनोद दुआ के मौत की अफवाह उडी थी, जिसका उनकी बेटी मल्लिका दुआ ने बाद में खंडन किया था। विनोद दुआ के फोटो को उस दिन सज्जन ने पोस्ट कर बेहूदा पोस्ट लिखा हुआ था। वो शख्स विनोद दुआ के मौत को सेलिब्रेशन में तब्दील करना चाहता था। बेशक इसको नफरत ही कहेंगे। मगर इससे ज्यादा हैरानी तो उसकी पोस्ट पर कमेन्ट देख कर हुई। जब कमेन्ट करने वाले भी उसके समर्थन में मौत का सेलीब्रेशन कर रहे थे।

देखिये, बात तो सिर्फ इतनी सी है, मगर बात के गहराई में जाकर देखेगे तो मालूम चलेगा कि ये एक नफरत के खेत से उगी हुई फसल मात्र है जो नफरत के साथ साथ लोगो के दिलो में भी नफरत भर रही है। बेशक हमारा समाज मुहब्बत का पैरोकार है। हम मुहब्बतों को तकसीम करते है। एक निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए आखिर इस इंसान के दिलों दिमाग में नफरत बैठी नही थी, तो फिर और क्या थी ? सबसे बड़ी बात आखिर नफरत किस बात की। विनोद दुआ ही क्या सभी इसको समझ सकते है। बेशक हमारा शहर मुहब्बतों का पैरोकार रहा है। सच कहता हु कि मुहब्बत की हमारी बस्ती से आखिर ये नफरतो का सामान किसका है। सच बताना कोई नई सड़क पर आखिर ये पुराना मकान किसका है ?

अब मैंने इन सज्जन की प्रोफाइल चेक किया तो जो निकल कर सामने आया उसके ऊपर चंद लफ्ज़ लिख डालू। सज्जन न कोई काम करते है। न कभी किसी स्कूल कालेज गए और न ही इनका कोई घर दुआर है। इस बात की पुष्टि उनकी प्रोफाइल कर रही है। हम अपने मन से कुछ नही कह रहे है। अब उस प्रोफाइल की जानकारी को आधार माने तो जिसके पास काम नही है, जो कभी स्कूल नही गया, जो पूरी तरह बुडच्चा हो, यानी परिवार ही न हो। उसके ऊपर ऐसी बाते कही से अटपटी नही लगती है। वैसे आप भी प्रोफाइल देखेगे ज़रूर हमको पता है। देख लीजिये और इनकी ज़ेहानत पर कुर्बान हो जाए। फिर उसके बाद मुझको भी बता दे कि हमारे मुहब्बत के शहर में ये नफरतो का सामान किसका है ? वो नई सड़क पर पुराना मकान किसका है?

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