तारिक़ आज़मी
कभी फुर्सत मिले तो अपने शहर के सबसे पुराने कब्रिस्तान टहल आइयेगा। इसलिए नही की इसकी बाउण्ड्री किसने बनवाई बल्कि यह देखने की यह कब्रिस्तान इस क़दर खामोश क्यों हैं। पुराने में इसलिए जाने को कह रहें हैं की इसमें वोह लोग दफ़न है जो किसी ज़माने में काबलियत की मिसाल रहें हैं। इनमे वोह भी दफ़न हैं जिनके लिखे पर हज़ारों ने पीएचडी की है। इसमें अकेले सन्नाटे में वोह भी दफ़न हैं जिनके पीछे लाखों की भीड़ रहती थी। जब इन कब्रिस्तानों में जाएँगे तो हो सकता है पाँव के नीचे उस वक़्त के क़ाज़ी या मुफ़्ती ही लेटे हों। क्या पता इस ज़मीन में कौन कौन हस्ती मिट्टी बन गई।
अब सोचिये वोह क्या है जो ज़िंदा रहता है। कब्रिस्तान में तो सब मर खप गए मगर बाहर ज़िंदा कौन रह गया है। अगर मजाज़ कुछ गज मिटटी में दफ़न हो जाते तो किताबों में क्या उनका भूत ज़िंदा है। मीर की कब्र कब की सिटी स्टेशन के नीचे आकर अपने ऊपर रेलवे के इंजन की गुनगुनाहट को सुन खत्म हो गई तो पन्नों में जो मीर ज़िंदा है वोह कौन है। कबीर को माटी खत्म न कर पाई। हज़ारों कब्रों को कोई नही जानता की कौन हैं इसमें मगर उसमे से ही लेटे हुए हसरत मोहानी की ग़ज़ल “चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है” में भला कौन ज़िंदा है। मनो मिटटी में दबे अब्दुल कलाम और अबुल कलाम और मौलाना आज़ाद को कहाँ यह कब्रिस्तान खत्म कर पाए।
कहना सिर्फ इतना भर है की सच है मौत तो आनी ही है। यह भी सच है इसी मिटटी में वजूद खत्म हो जाना है जिसमे सुकरात और अरस्तू का हुआ है। मगर हाँ मगर हमारे काम हमे ज़िंदा रखेंगे। हमारी इंसानियत के लिए की गई कोशिशें कोई भी कब्रिस्तान खत्म नही कर पाएगा। हमारी मोहब्बत हमे हमेशा ज़िंदा रखेगी। हो सके तो इन पुराने कब्रिस्तानों में उन कब्रो को ढूंढियेगा जिनके नाम आपको बचपन से याद हों। कब्र तो आपको न ही मिले मगर इतना तो यक़ीन है उस फर्द की शख्सियत हमेशा आपमें और हममे ज़िंदा रहेगी। अपने आप को मोहब्बत से पैबस्त कर दो वरना बदन तो वैसे भी सड़कर खत्म हो ही जाएगा। ज़िंदा रहते हुए तो अपने दिल ओ दिमाग को मत सड़ाओ। मोहब्बत पैदा करो ताकि आने वाली नस्ले सुक़ून की ज़िन्दगी जी सकें।
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