ए0 जावेद
वाराणसी। उस मासूम ने चंद साँसे ही तो लिया था इस दुनिया-ए-फानी में, और मौत ने उसको अपने आगोश में ले लिया। उसका क्या कसूर था ? शायद उसका कसूर इतना ही था कि उसके माँ बाप गरीब थे। किसी अमीर माँ की कोख से जन्म लेता तो उसको इस दुनिया में साँसे मिल जाती। वक्त पर डाक्टर भी उपलब्ध होता और एम्बुलेस भी आ गई होती। समाजसेवक सय्यद नय्यर की कोशिशे भी कामयाब होती। मगर उफ़ ये ज़ालिम ज़माना। नय्यर मियाँ फ़ोन पर फोन करते रहे मगर एम्बुलेस नही मिल सकी।
अचानक गर्भ का वक्त पूरा हो गया। गर्भ की पीड़ा उठ गई। पति रमेश परेशान था कि किसी तरीके से कोई डाक्टर मिल जाए जिससे उसकी पत्नी और बच्चे की जान बच जाये। मगर इसके लिए जेब में पैसे चाहिए होते है। सुबह से पत्तो की बिक्री से चंद सिक्के ही तो आये थे। उतने में तो कोई डाक्टर देखने से रहा। सरकारी अस्पताल कैसे जाए इसकी भी जानकारी रमेश को नही थी। वो केवल परेशान होकर लोगो से मदद मांग रहा था। तभी उधर से समाज सेवक सय्यद नय्यर का गुज़र होता है। गर्भवती की स्थिति देख कर नय्यर मियाँ ने फोन निकला और एम्बुलेस को फोन किया। फोन जाने के काफी देर बाद तक एम्बुलेस नही आई।
नय्यर मिया एम्बुलेंस को फोन करते रह गए और लगभग एक घंटे तक एम्बुलेस नही आई। नय्यर की माने तो एम्बुलेस के जिस नम्बर पर वह फ़ोन कर रहे थे वह उनके साथ फोन पर अभद्रता भी करने लगा। आखिर शांति को मौके पर ही डिलेवरी का वक्त हो गया। आसपास की महिलाओं ने किसी प्रकार परदे का इंतज़ाम करके शांति की डिलेवरी करवाई। चाँद जैसे बच्चे ने इस दुनिया में पहली आवाज़ लगाई और ये उसकी आखरी आवाज़ थी। चंद लम्हों में ही उस मासूम ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आखिर इस ज़ालिम दुनिया में रहकर वह करता भी क्या जहा पैसो पर ज़िन्दगी मिल जाती है। उसके पास तो पैसे थे भी नही। माँ बाप उसके गरीब थे। सहारा कुछ था नही।
नय्यर मिया के साथ खड़े क्षेत्र के सभी समाजसेवको की आँखे नम हो गई। मासूम इस दुनिया से जा चूका था। उसकी माँ शांति को ये नही समझ आ रहा था कि वह अपनी गरीबी पर आंसू बहाए, अपने लाल के जाने पर रोये या फिर अपने दर्द को आंसू का सहारा दे। मासूम के मर जाने के बाद की मज़बूरी तो देखे हुजुर, उसका बाप अपने साथ लाये पत्तो को जल्दी जल्दी बेचना चाहता था क्योकि अंतिम संस्कार के लिए भी तो पैसे की दरकार थी। सही कहा था मुंशी प्रेमचंद्र ने कि “जिसको तन ढकने के लिए छिथड़े भी नसीब नही हुवे, उसको भी मरने के बाद नया कफ़न चाहिए होता है।
ऐसे हालात में नय्यर मियाँ मज़बूरी समझते थे। उन्होंने अंतिम संस्कार के लिए रमेश को कुछ पैसे बंद मुट्ठी से दिए। उधर से पैदल गश्त कर रहे पानदरीबा चौकी इंचार्ज अजय शुक्ला को जानकारी हुई तो उन्होंने इस घटना पर अफ़सोस जताया और जच्चा के इलाज हेतु कुछ रूपये उन्होंने भी अपनी जेब से दिए। रमेश के पत्ते बिक चुके है। वह अपने लाल के अंतिम संस्कार की तैयारी कर रहा है। हम नम आँखों से इस खबर को लिख रहे है। आपको हमारे लफ्ज़ अगर आँखों के कोने नम करने पर मजबूर कर रहे है तो बेशक आप थोडा इस हालात पर सोच सकते है। दर्द का अहसास कर सकते है। कलम हमारी अभी और भी रोना चाहती है। मगर हम उन आंसुओ के समुन्द्र में खुद के लफ्जों को डूबना नही चाहते है। हम ग़मगीन है………….
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