तारिक आज़मी
ऐसे बहुत सारे लोग जिन्हें अपने अधिकारों के लिए कभी आवाज उठाने का अवसर नहीं मिला, जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए रोजमर्रा की जद्दोजहद जिनकी जिन्दगी का सच था। ऐसे दबे कुचलो की आवाज़ का नाम था बाबा भीम राव अम्बेडकर। आज ही के दिन वर्ष 1891 में जन्मे बाबा भीम राव अम्बेडकर की जयंती देश मनाता है। भले ही बाबा भीम राव अम्बेडकर भारत की एक धरोहर है, मगर पूरी दुनिया का शायद ही कोई ऐसा मुल्क होगा जहा उनके चाहने वाले नही मिले।
मगर अपनी शिक्षा के दरमियान उन्हें जिस छुआछूत की भावनाओं से दो चार होना पड़ा वह उनके मनमस्तिष्क में स्थान कर गई और अपने पुरे जीवन भर बाबा भीम राव अम्बेडकर ने भारत में दलित समाज के उत्थान के लिए काम करना शुरू किया। जंग-ए-आज़ादी के बाद वह संविधान सभा के अध्यक्ष बने और आजादी के बाद भारत के संविधान के निर्माण में अभूतपूर्व योगदान दिया। जीवन के हर पड़ाव पर संघर्षों को पार करते हुए उनकी सफलता हर किसी के लिए प्रेरणा है।
आज जहा मुल्क डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की जयंती मना रहा है, वही दूसरी तरफ आज ही के दिन उनके द्वारा लिखित पहले पत्र “मूकनायक” के प्रकाशन को सौ साल पूरे हो गए हैं। डॉ0 आंबेडकर के जमाने में प्रिंट मीडिया और वौइस् मीडिया ही प्रचालन में थी। यानी अखबार-पत्र-पत्रिकाएं और रेडियो ही हुआ करता था। मीडिया पर ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों का पारंपरिक प्रभुत्व तब भी था। इसलिए डॉ0 आंबेडकर को प्रारंभ में ही ये समझ में आ गया कि वे जिस लड़ाई को लड़ रहे हैं, उसमें उस समय का मीडिया उनके लिए उपयोगी साबित नहीं होगा, बल्कि उन्हें वहां से प्रतिरोध ही झेलना पड़ेगा। इसका सीधा सा उदहारण आप देख सकते है कि डॉ0 भीम राव अम्बेडकर को अपने विचार जनता तक पहुंचाने के लिए कई पत्र निकालने पड़े, जिनके नाम हैं – मूकनायक (1920), बहिष्कृत भारत (1924), समता (1928), जनता (1930), आम्ही शासनकर्ती जमात बनणार (1940), प्रबुद्ध भारत (1956) प्रमुख थे। डॉ भीम राव अम्बेडकर ने संपादन, लेखन और सलाहकार के तौर पर काम करने के साथ इन प्रकाशनों का मार्गदर्शन भी किया।
मूकनायक के संपादक पीएन भाटकर थे, जो महार जाति के थे। उन्होंने कॉलेज तक की शिक्षा प्राप्त की थी। मूकनायक के पहले तेरह संपादकीय लेख डॉ0 आंबेडकर ने लिखे। पहले लेख में आंबेडकर ने हिंदू समाज का वर्णन ऐसी बहुमंजिली इमारत के रूप में किया, जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए न तो कोई सीढ़ी है और न कोई प्रवेश द्वार। सभी को उसी मंजिल में जीना और मरना है, जिसमें वे जन्मे हैं। दरअसल मूकनायक आंबेडकर द्वारा स्थापित पहली पत्रिका थी। इतिहास के झरोखों से देखे तो बाल गंगाधर तिलक उन दिनों केसरी नामक समाचार-पत्र निकालते थे। जिसमे इस पत्र का विज्ञापन नही छपा था।
18 जनवरी 1943 को पूना के गोखले मेमोरियल हाल में महादेव गोविन्द रानाडे के 101वीं जयंती समारोह में ‘रानाडे, गाँधी और जिन्ना’ शीर्षक से दिया गया। वर्ष 1943 में पूना में हुवे गोविन्द रानाडे जयंती के मौके पर डॉ0 आंबेडकर का व्याख्यान मीडिया के चरित्र के बारे में उनकी दृष्टि को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। 18 जनवरी 1943 को पूना स्थित गोखले मेमोरियल हाल में महादेव गोविन्द रानाडे की जयंती के मौके पर हुवे समारोह “रानाडे, गांधी और जिन्ना” शीर्षक से हुवे इस गोष्टी में बोलते हुवे डॉ भीम राव अम्बेडकर ने समाज में मीडिया की भूमिका पर प्रकाश डाला था और कहा था कि ‘मेरी निंदा कांग्रेसी समाचार पत्रों द्वारा की जाती है। मैं कांग्रेसी समाचार-पत्रों को भलीभांति जनता हूं। मैं उनकी आलोचना को कोई महत्त्व नहीं देता। उन्होंने कभी मेरे तर्कों का खंडन नहीं किया। वे तो मेरे हर कार्य की आलोचना, भर्त्सना व निंदा करना जानते हैं। वे मेरी हर बात की गलत सूचना देते हैं, उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं और उसका गलत अर्थ लगाते हैं। मेरे किसी भी कार्य से कांग्रेसी-पत्र प्रसन्न नहीं होते। यदि मैं कहूं कि मेरे प्रति कांग्रेसी पत्रों का यह द्वेष व बैर-भाव अछूतों के प्रति हिंदुओं के घृणा भाव की अभिव्यक्ति ही है, तो अनुचित नहीं होगा।’
यह व्याख्यान डॉ अम्बेडकर का भले वर्ष 1943 का था मगर आप सोचे कि अगर आज अम्बेडकर वर्त्तमान स्थिति पर अपना नजरिया दे रहे होते तो उनके निशाने पर कौन होता? आज जिस तरीके से मीडिया के विभिन्न साधन व्यक्ति पूजा और सरकार की आलोचना को राष्ट्र की आलोचना साबित करने में लगे हैं या राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं, उसे देखते हुए डॉ। आंबेडकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। यदि आज डॉ। आंबेडकर होते तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके निशाने पर कौन सी विचारधारा और पार्टी तथा नेता होते।
आल इंडिया शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ने जनवरी 1945 में अपने साप्ताहिक मुख-पत्र ‘पीपल्स हेराल्ड’ की शुरुआत किया था। इस पत्र का मुख्य उद्देश्य दबे कुचले समाज की आकांक्षाओं, मांगों, शिकायतों को स्वर देना था। इस पत्र के उद्घाटनकर्ता की हैसियत से डॉ0 आंबेडकर ने कहा, ‘आधुनिक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में अच्छी सरकार के लिए समाचार पत्र मूल आधार है। इसलिए भारत के अनुसूचित जाति के अतुलनीय दुर्भाग्य और दुर्दशा को ख़त्म करने में तब तक सफलता नहीं मिल सकती, जब तक 8 करोड़ अस्पृश्यों को राजनीतिक रूप से शिक्षित न कर लें। यदि विभिन्न विधानसभाओं के विधायकों के व्यवहार की रिपोर्टिंग करते हुए समाचार पत्र लोगों से कहें कि विधायकों से पूछो ऐसा क्यों है, कैसे हुआ, तब मेरे दिमाग में कोई दुविधा नहीं है कि विधायकों के व्यवहार में बड़ी तबदीली आ सकती है। इस तरह वर्तमान दुर्व्यवस्था, जिसके भोगी हमारे समुदाय के लोग हैं, पर रोक लग सकती है। इसलिए मैं इस समाचार पत्र को एक वैसे साधन के रूप में देख रहा हूं, जो वैसे लोगों का शुद्धिकरण कर सकता है जो अपने राजनीतिक जीवन में गलत दिशा में गए हैं।’
ज़ाहिर है आंबेडकर ने लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर और जनता के राजनीतिक प्रशिक्षण में समाचार पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया। आंबेडकर के ज़माने से लेकर अब तक मीडिया जगत में बहुत कुछ बदल चुका है। लेकिन, बहुत कुछ यथावत भी है। आज भी दबे कुचलो और अछूतों के लिए मीडिया में क्या स्थान है आपको भी मालूम है। प्रोपेगंडा के तौर पर सरकार की नीतियों का समर्थन करना और यदि कोई उन नीतियों का विरोध करे तो सरकार की नही बल्कि वह राष्ट्र का विरोध कर रहा है ये साबित करने के लिए मीडिया द्वारा पसीना बहाया जाना आम बात हो चुकी है।
कांशीराम ने डॉ भीम राव अम्बेडकर के आन्दोलन को आगे बढाते हुवे कई पत्र निकाले थे। मगर आज वह कहा है और किस स्थिति में है कहने की ज़रूरत नही है। व्यक्तिगत प्रयास से कुछ छिटपुट पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही है। अनगिनत सोशल मीडिया पेज, ट्विटर, फ़ेसबुक ग्रुप, यू-ट्यूब चैनल, वीडियो ब्लॉग और ब्लॉग चलाए रहे हैं। लेकिन ऐसा क्यों है कि सैकड़ों दलित करोड़पति, डिक्की और बामसेफ जैसे संगठन, सैकड़ों विधायक, सांसद, मंत्री और दर्ज़नों ताकतवर राष्ट्रीय नेताओं, हज़ारों नौकरशाहों के होने के बावजूद आज मुख्यधारा में ऐसा कोई अंग्रेज़ी/हिंदी अख़बार/टीवी चैनल नहीं है, जो दलितों और पिछड़ी जातियों से जुड़े मुद्दों पर संवाद कर सके, उनके विश्व दृष्टि की नुमाइंदगी का दावा कर सके?
आप सोचे अगर आज अम्बेडकर वर्त्तमान स्थिति को देखते तो उनके क्या नज़रिए होते। एक विपक्षी नेता द्वारा सत्ता में विराजमान एक मंत्री से सवाल पुछ्लेने पर मीडिया जगत में कोहराम मच जाता है कि ये मंत्री की सुरक्षा में खामी हो गई। कैसे सवाल पूछ लिया। भाई क्या मंत्री से सवाल पूछना कोई अपराध है। मगर मीडिया ने इसको ऐसे हाईलाइट किया जैसे लगा कि बहुत बड़ी घटना हो गई है। लोकतंत्र में सवाल पूछने का अधिकार भले सबको संविधान देता है, मगर शायद वर्त्तमान मीडिया ये अधिकार सिर्फ अपने पास सुरक्षित रखना चाहता है।
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