शाहीन बनारसी
कहते है गुरु बिना ज्ञान नही और ज्ञान बिना जीवन नही। गुरु शब्द तो बहुत छोटा है मगर हमारी ज़िन्दगी में इस शब्द के मायने बहुत बड़े है। जिंदगी में कुछ सीखने के लिए सभी को एक गुरु की तलाश होती है। लेकिन देखा जाए तो उस्ताद को तलाशने की जरूरत ही नही होती। आपकी काबलियत से खुश होकर वह रब्ब-उल-आलमीन खुद आपको आपके उस्ताद से मिलवा देता है। गुरु सिर्फ वही नही होता जो आपको कलम पकड़ना सिखाये या लिखना सिखाये। बल्कि हर वो इंसान गुरु होता है जो आपको कुछ न कुछ सीखा जाता है।
शायद मुझे कहने की जरूरत न पड़े क्योकि ये तो सब ही जानते है कि हमारे सबसे पहले गुरु तो हमारे माँ-बाप होते है। सबसे पहले हमें कही से सीख मिलती है तो वह होता है हमारा परिवार। फिर हमारे ज़िन्दगी में ऐसे लोग तो मिलते ही रहते है या फिर कहे तो हमारी ज़िन्दगी ही हमे कदम-कदम पर कुछ न कुछ सीख दे ही जाती है। वैसे हमारे गुरु हमारे उस्ताद साहब ने हमसे कहा था कि सीखने की प्रक्रिया तो ता-उम्र चलती रहती है। जिंदगी की एक यही प्रक्रिया तो है कि इंसान मरते-मरते भी कुछ न कुछ सीख ही जाता है। एक गुरु के अहसान को लफ़्ज़ों में बयान ही नही किया जा सकता। एक उस्ताद सिर्फ़ किताबी बाते ही नही बल्कि ज़िन्दगी जीना भी सिखाते है। हमारे माँ-बाप हमे हर वो चीज़ सिखाते है जो वो सीखा सकते है और चीज़े सीखने के लिए फिर वो हमें स्कूलों में भेजते है। जहाँ से हम अपने गुरुवों के द्वारा कलम पकड़ना सीखते है और लिखना सीखते है।
मैंने भी यही सब कुछ सीखा है। मगर मैंने कभी सोचा नही था कि इस शाहीन को लफ्जों के आसमान में परवाज़ करने का सलीका आएगा। बेशक हमे बोलना सीखने में महज़ दो साल लगते है। मगर क्या बोलना है ये सीखने में दो जन्म भी कभी कभी कम पड़ सकते है। मैंने कभी सोचा भी नही था कि मुझे एक ऐसा उस्ताद मिल जायेगा जो मुझे मेरे नाम के ही वजूद को समझा देगा। दुनिया के इस भीड का कभी मैं भी हिस्सा थी। एक ऐसे मोहल्ले और परिवार से हु, जहा बेटियों को बेशक तालीम दिया जाता है, मगर बंदिशे भी रहती है। एक ऐसी लड़की जिसकी कोई पहचान नही थी मगर उसको इस दुनिया की भीड़ में एक पहचान दी मेरे इसी गुरु ने। मुझे मेरे नाम के मायने तो पता थे, लेकिन इस मायने का वजूद मुझे मेरे गुरु ने बताते हुए कहा कि “शाहीन का त’अल्लुक परवाज़ से है। शाहीन अपनी परवाज़ के लिए ही पैदा होता है।“
उन्होंने मुझे तालीम-ओ-तरबियत के दरमियान बताया है कि तिरी परवाज़ तिरे लफ्जों की आज़ादी है। उन्होंने ही तो मुझको बताया कि “तेरे” को कदीमी उर्दू में “तिरी” कहा जाता है। उन्होंने ने ही अहसास करवाया कि कदीमी उर्दू अदब में “मेरे” नही मिरे लफ्जों और लबो को भी आज़ादी है। अब ये शाहीन छोटी ही सही मगर अल्फाजो के आसमान में परवाज़ कर रही है। ये एकदम ऐसा ही है कि गर यासिराना चंगेजी लखनऊ से हिजरत न किये होते तो शायद उनके लफ्जों में वो कशिश भरा हुआ शेर “कशिश-ए-लखनऊ हाय तौबा, फिर वही हम, वही अमीनाबाद” नही आता। शायद मैं अपने उस्ताद से नही मिली होती तो मेरे नाम का वजूद क्या है मुझको पता ही न चल पाता।
बिलाशुबहा एक सच्चा गुरु वही तो है जो जीना सीखा दे। दुनिया के रास्तों पर चलना सीखा दे। जो सच्चा इंसान बना दे। मुश्किलो से लड़कर आगे बढ़ना सीखा दे। वो तुम्हे बताये कि जीत जाना ही सब कुछ नही है, और हारकर भी जीत जाने का हुनर सीखा दे। तभी तो सारा जहान जीतने वाले सिकंदर का नाम जब भी लिया जाएगा उससे अपनी जंग कुवातन हारने वाले पोरस का भी नाम लिया जाएगा। क्योकि पोरस ने कुवअतन जंग हारी थी, हिम्मत उसकी नही हारी थी और वह हार कर भी जीत गया था, दुसरे तरफ खाली हाथो इस दुनिया से रुखसत होने वाला दुनिया जीतने की कुवत रखे सिकंदर जीत कर भी हार गया था।
मैंने उर्दू पढ़ा तो अपने वालदैन से था। मगर उन लफ्ज़ो को इस्तेमाल करने की सलाहियत मेरे उस्ताद ने दिया। बेशक मुझको उर्दू आती थी, उर्दू पढ़ लेती थी, उर्दू लिख लेती थी, मगर उर्दू महज़ एक ज़ुबान ही नही बल्कि एक अदब है इसकी तालीम मेरे उस्ताद ने ही दिया। मैंने शीन भी पढ़ा था, और काफ़ भी पढ़ा था, मगर इसका इस्तेमाल मुझको मेरे उस्ताद ने ही सिखाया। दिल से सिर्फ एक ही लफ्ज़ मेरे उस्ताद तारिक़ आज़मी के लिए निकल रहा है “शुक्रगुज़ार हु मैं आपकी मेरे उस्ताद, जो आपने अपनी शागिर्दी में मुझे लिया। शुक्र है उस परवरदिगार का जो उसने मुझे आप जैसा उस्ताद बक्शा।”
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