रौशनी चाय वाली ही नही, बनारस के “औरंगाबाद की पूजा जी पॉपकॉर्न वाली” भी है महिला सशक्तिकरण की उदाहरण
शाहीन बनारसी
वाराणसी: नारी सशक्तिकरण की बाते काफी होती है। नारी शक्ति की प्रतीक होती है, ऐसा पुरातन काल से कहा जाता रहा है। मगर इतिहास से लेकर वर्तमान तक में नज़र उठा कर देखे तो कई ऐसी हस्तियों ने अपना मुकाम इस दौर से लेकर गुज़रते दौर तक बनाया है जिनको आज भी याद रखा जाता है। महिला सशक्तिकरण के इस दौर में आपको पटना की रोशनी चाय वाली की बाते और उसका संघर्ष याद होगा जिसको नेशनल मीडिया में जगह मिली।
मीडिया में सुर्खियाँ बटोरती रोशनी चाय वाली रातो रात देश के हर एक की जुबान पर पहुचने वाला नाम हो गया था। अगर हकीकत की रोशनी में देखे तो रोशनी चाय वाली महिला सशक्तिकरण की एक बड़ी उदहारण है। मगर ऐसे कई और भी उदाहरण जो मीडिया कैमरों की नज़रो के जद में नही आये या फिर किसी ने उनकी दास्तान को समझा ही नही, अगर समझा तो किसी से बताया नही और वक्त अपनी रफ़्तार से गुज़रता जा रहा है। मगर उन महिलाओं का संघर्ष आज भी बदस्तूर जारी है। वह आज भी अपने रोज़मर्रा के ज़रुरतो के लिए एक पुरुष के समान इज्ज़त और तहजीब के साथ संघर्ष कर रही है।
ऐसा ही एक नाम है बनारस की “पूजा जी पॉपकॉर्न वाली” का। गरीब माँ-बाप ने अपने वसत के हिसाब से अपनी बेटी पूजा की शादी किया और हर सुख दुःख में उसके साथ खड़े भी रहे। मगर नशे की लत में पति कब परमेश्वर से हैवान बन जाए पता नही रहता है। पूजा ने काफी उम्मीदे रखी, बड़ा सब्र किया कि हो सकता है वक्त के साथ पति के व्यवहार में बदलाव आ जाये। मगर हर एक कोशिशे वक्त के साथ नाकाम होती रही। दो बेटियों और दो बेटे के बाद भी वक्त और पति ने कोई रहम उसके साथ नहीं दिखाया। आखिर पूजा को फैसला करना था अपने बेटे और बेटियों के भविष्य को लेकर।
बात अब उसके नहीं बल्कि उसके बच्चो के भविष्य को लेकर हो चुकी थी। अपना भुत और वर्तमान तो ख़राब हो सकता था, मगर बच्चो का भविष्य वह नही ख़राब करना चाहती थी। आखिर उसने फैसला किया और अपनी बेटियों के साथ अपने माँ बाप के घर आ गई। दुखी माँ-बाप ने बेटी को अपने सहारा दिया मगर पूजा अपने माँ बाप पर भी बोझ नही बनना चाहती थी। खुद के और बेटियों के भविष्य के लिए उसका अगला कदम था एक छोटा सा स्टाल लगाना। जो चंद सिक्के जिंदगी की अमानत थे वह इस स्टाल को लगाने में खर्च कर डाला। स्टाल लगा और स्टाल पर बिक्री भी होती रही। मगर पूजा ने अपना वसूल नही छोड़ा और मुह पर स्कार्फ बाँध कर ही दुकानदारी करती। इस बीच नशे के लती पति ने अपने दोनों बेटे भी उसके पास पंहुचा दिया।
इस छोटी सी दूकान से पूजा ने अपनी दो बेटे और दो बेटियों को पढाया लिखाया। एक बेटी की शादी किया और दूसरी की शिक्षा आज भी जारी है। छोटी सी पापकार्न की दूकान भी बड़ी किया और बच्चो की तालीम-ओ-तरबियत के साथ पापकार्न की दूकान को एक फ़ास्ट फ़ूड कार्नर बना लिया। यही नही कहते है कि “खुबसूरत चेहरा भी क्या बुरी शय है, जिसने डाली गलत नज़र डाली,“ इससे बचते हुए खुद की अस्मत को संभालने के लिए चेहरे को पूजा आज भी स्कार्फ से ढक कर शाम 5 बजे से रात 12 बजे तक दूकान चलती है। इस दरमियान वक्त ने उसका इम्तेहान लेना नही छोड़ा और उसकी माँ का भी दामन उसके हाथो से छूट गया। आज वो अपने दो बच्चो के तालीम-ओ-तरबियत के साथ अपने बुज़ुर्ग पिता का भी सहारा एक बेटे की तरह बनी है। बस उस पर शामत एक ये रहती है कि अक्सर वह पति जो आज भी बदलाव के नज़र से तो देखा ही नही जा सकता है, अक्सर आकर गालियाँ बोनस के रूप में देकर जाता है। मगर पूजा का हौसला आज भी नही टुटा है। आज भी वह वक्त से अपनी दूकान खोलती है।
अब पूजा जी पापकार्न भले ही दूकान का नाम है मगर साथ-साथ अब ये एक फ़ास्ट फ़ूड कार्नर में तब्दील हो चूका है। फ़ास्ट फ़ूड के साथ पूजा अब टिफिन सप्लाई का भी काम करती है। भले ही कारोबार ये अभी कम चल रहा है। मगर वक्त के साथ पूजा इस संघर्ष को भी पार कर लेगी। ख़ास तौर पर ऐसे में सिर्फ एक ही बात कहने का मन करता है कि “अगर वरासत संघर्ष की हो तो बेशक उसको अपनी आने वाली पीढियों को देकर जाना चाहिए। क्योकि संघर्ष में ही ज़िन्दगी का असल लुत्फ़ होता है।”