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रमाबाई आंबेडकर के जन्मदिवस (7 फरवरी-1898) पर विशेष: महिला सशक्तिकरण की बड़ी मिसाल रमाबाई, जिन्होंने भीमराव अम्बेडकर को बनाया “बाबा साहेब”

शाहीन बनारसी  

देश के पहले कानून मंत्री और संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर को भला कौन नहीं जानता! बचपन से ही भेदभाव झेलने वाले आंबेडकर के जीवन में कम चुनौतियां नहीं आईं, लेकिन उन्होंने हर चुनौती का सामना करते हुए खुद को साबित किया। डॉ भीमराव आंबेडकर ने दबे-पिछले समाज के उद्धार के लिए इतना कुछ किया कि उन्हें बाबासाहब की उपाधि दी गई। इसके पीछे हर कदम पर साथ देने वाली उनकी पत्नी रमाबाई आंबेडकर का भी अहम योगदान रहा। आज रमाबाई की पुण्‍यतिथि है।

ओम प्रकाश कश्यप ने इस सम्बन्ध में अपनी किताब में बाबा साहेब के एक वक्तव्य जिसका वर्णन अम्बेडकर-2019 में किया है का सन्दर्भ लिया और लिखा है कि “उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।“ समर्पण के इन शब्दों से कोई भी अंदाज लगा सकता है कि डॉ0 आंबेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते हैं और उनके जीवन में उनकी कितनी अहम भूमिका थी। उन्होंने उनके हृदय की उदारता, कष्ट सहने की अपार क्षमता और असीम धैर्य को याद किया है। इस समर्पण में वे इस तथ्य को रेखांकित करना नहीं भूलते हैं कि दोनों के जीवन में एक ऐसा समय रहा है, जब उनका कोई संगी-साथी नहीं था। वे दोनों ही एक दूसरे संगी-साथी थे। वह भी ऐसे दौर में जब दोनों वंचनाओं और विपत्तियों के बीच जी रहे थे।

वर्ष 1934 में डॉ0 आंबेडकर मुंबई में अपने आवास राजगृह में परिजनों के साथ। बाएं से यशवंत (पुत्र), डॉ. आंबेडकर, रमाबाई (पत्नी), लक्ष्मीबाई (बड़े भाई आनंद की पत्नी) व भतीजा मुकुंदराव आंबेडकर(सबसे दाएं)। तस्वीर में डॉ0 आंबेडकर का प्यारा कुत्ता टॉबी

महज 15 वर्ष की उम्र में ही भीमराव आंबेडकर की शादी हो गई थी। अपनी किताब “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” को डॉ आंबेडकर ने रमाबाई को समर्पित करते हुए लिखा है कि उन्हें मामूली व्यक्ति से बाबासाहेब अंबेडकर बनाने का श्रेय रमाबाई को ही जाता है, जो हर हालात में उनके साथ रहीं। उनकी ही वजह से आंबेडकर बाहर जाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर पाए। रमाबाई को लोगों के खूब तानें सुनने को मिलते थे। वह हर छोटा-बड़ा काम कर आजीविका चलाती रहीं और घर को संभाले रखा। शादी के तुरंत बाद रमाबाई समझ चुकी थीं कि दलित-पिछड़ों का उद्धार शिक्षा से ही संभव है। वह जानती थीं कि डॉ भीमराव शिक्षित होंगे तभी पूरे समाज को भी शिक्षा के प्रति जागरूक कर पाएंगे। इसलिए डॉ आंबेडकर की पढ़ाई का खर्च जुटाने में भी उन्होंने मदद की।

7 फरवरी 1898 को जन्मी रमाबाई के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। घर के माली हालात ठीक नहीं थे। ऐसे में उनके मामा के यहां उनकी परवरिश हुई और मामा ने ही भीमराव आंबेडकर से उनकी शादी करवाई। भीमराव पत्नी रमाबाई को प्यार से ‘रामू’ कहकरक पुकारते थे। वहीं रमाबाई भी उन्हें प्यार से साहेब बुलाती थीं। दलितों के उत्थान के लिए बाबासाहेब के संघर्ष में रमाबाई ने अपनी आखिरी सांस तक उनका साथ दिया। एक अन्य घटना का विवरण वर्ष 1991 में प्रकाशित पुस्तक पुस्तक वंसत मून के पृष्ठ 25 पर लिखा है कि ‘ऐसे दौर उनके जीवन में कई बार आए।

पहली बार तब जब आंबेडकर 1920 में दूसरी बार अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए।  जाने के पहले उन्होंने रमाबाई को घर खर्च चलाने के लिए जो रकम दी थी, वह बहुत कम थी और बहुत ही जल्दी खर्च हो गई। उसके बाद उनका घर खर्च रमाबाई के भाई-बहन की मजदूरी से चला। रमाबाई के भाई शंकरराव और छोटी-बहन मीराबाई-दोनों छोटी-मोटी मजूरी कर तक़रीबन आठ-दस आने (50-60 पैसे) रोज कमा पाते थे। उसी में रमाबाई बाजार से किराना सामान खरीद कर लातीं और रसोई पकाकर सबका पेट पालती थीं। इस तरह मुसीबत के ये दिन उन्होंने बड़ी तंगी में बिताए। कभी-कभी उनके परिवार के सदस्य आधे पेट खाकर ही सोते, तो कभी भूखे पेट ही।‘

करीब 3 दशक तक डॉ भीमराव का साथ निभाने वाली रमाबाई का लंबी बीमारी के चलते निधन हो गया। 27 मई 1935 को उन्होंने आखिरी सांस ली। कई लेखकों ने रमाबाई को ‘त्यागवंती रमाई’ का नाम दिया। रमाबाई पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं, जबकि उनके जीवन पर नाटक और फिल्में भी बन चुकी हैं।

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