तारिक़ आज़मी
‘क़त्ल-ए-हुसैन असल में मर्गे यजीद है, इस्लाम जिंदा होता है कर्बला के बाद।’ गर चे मैं आलिम होता तो शुरू करता ‘आमंतोबिल्लाहे’ या गर मैं सियासतदा होता तो ‘भाइयो और बहनों’ लफ्ज़ से शुरुआत किया जा सकता था। मगर अफ़सोस कि दिल गढ़दे में तो हमारी शुरुआत वैसे ही सपाट हो जैसी होनी चाहिए। इस्लामी कलेंडर ‘हिजरी’ का नया साल आज शुरू हुआ है। इस्लाम में साल की शुरुआत शहादत से और खत्म कुर्बानी पर होती है। ग़म से शुरू करके हम ख़ुशी की जानिब ये कैलेंडर जाता है।
किसी शायर ने क्या खूब अर्ज़ किया है कि ‘हंस-हंस के मौत सबको लगाती रही गले, असगर हँसे तो मौत का चेहरा उतर गया।’ इसी शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। इमाम हुसैन ने अपनी शहादत कर्बला के मैदान में दिया था। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल हक़ (सत्य) के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इसी पर शायर ने कहा है कि ‘क़त्ल-ए-हुसैन असल में मर्गे यजीद है, इस्लाम जिंदा होता है कर्बला के बाद।’ मुहर्रम महीने के 10वें दिन को ‘आशुरा’ कहते है। जिस दिन इमाम हुसैन ने अपनी शहादत दी थी। मुहर्रम इस्लामी वर्ष यानी हिजरी सन् का पहला महीना है। अल्लाह के रसूल हजरत ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है।
मुहर्रम मातम के रूप में मनाया जाता है, और लोग विभिन्न तरीकों से अपना दुःख व्यक्त करते हैं। भारत में एक बहुत बड़ा हिन्दू वर्ग भी इस त्यौहार को मनाता है। पूरे दिन लोग रोज़ा (उपवास) करते जिसमें पानी तक नहीं पीते है। मुहर्रम ताजिया हजरत इमाम हुसैन कि याद में बनाया जाता है, और बड़े-बड़े जुलूस निकाले जाते है। बहुत जगह मुस्लिम समुदाय के लोग इस दिन अपने शरीर को कष्ट देकर मातम मनाते है। मशहूर कवि कुमार विश्वास ने कहा है कि ‘ज़ालिम का नाम मिट गया तारीख़ से मगर, वो याद रह गए जिन्हें पानी नहीं मिला।’ यज़ीद के ज़ुल्म-ओ-सितम की ये हद थी कि नबी के नवासो का पानी तक बंद कर दिया था।
हज़रत इमाम हुसैन की शहादत कर्बला के मैदान में दौरान-ए-सज्दा हुई थी। इस पर एक खुबसूरत शेर है कि ‘दुनिया करेगी जिक्र हमेशा हुसैन का, इस्लाम जिन्दा कर गया सजदा हुसैन का।’ और ये हक़ भी है कि ज़िक्र-ए-हुसैन दुनिया में आज भी है और ता-क़यामत तक रहेगा। जबकि बातिल यज़ीद और यज़ीदियत का नाम-ओ-निशाँ मिट चूका है। यहाँ तक कि कोई उसको जानने वाला भी नही है जो कह सके कि वह उस ज़ालिम यज़ीद के कुनबे से है। हकीकत तो ये है कि ‘लफ़्जों में क्या लिखूं मैं शहादत हुसैन की, कलम भी रो देती है कर्बला का मंजर सोचकर।’ सच बता रहा हु कि आज सोचा था कुछ लिखने को शहादत-ए-कर्बला पर। मगर कलम बेसाख्ता चिला रही है,बस कर रो तो लेने दे मुझको। “दिल थाम के सोचा लिखूं शान-ए-हुसैन में, कलम चीख उठी कहा बस अब रोने दो।’
मैदान-ए-कर्बला में उन 72 मुसाफ़िर जिनका दाना और पानी ज़ालिम यज़ीद ने बंद कर रखा था का सोचना ये थे कि हुसैन पानी-ए-दजला को तरसे, मगर हकीकत ये है कि दरिया खुद हुसैन के लबो को तरस रहा था। किसी शायर ने बड़ी ही खुबसूरत अंदाज़ में इसको बयाँ किया है कि ‘सुन लो यज़ीदीयों, तड़पा नही हुसैन मेरा पानी के लिए, दरिया ज़रूर महरूम था, लब-ए हुसैन को छूने के लिए।‘
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