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खिचड़ी पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ: बनारस और बनारसियत को आज एक लफ्ज़ की कमी खल रही “भक्कटाअअअअअअअअअ”

तारिक आज़मी

वाराणसी: खिचड़ी…. एक नाम सुनते के साथ ही बनारसी और बनारसियत का जज्बा दिल के अन्दर उमड़ पड़ता है। हाथो में पतंग की डोर, मुह में गुड की पट्टी, बीच बीच में चाय का दौर। थोडा मस्ती, छत की सैर के दरमियान आँखे आसमान पर और हवाओं का रुख देखने को आतुर पतंग की डोर को तेज़ी से खीचना या ढीलना और फिर एक दमदार आवाज़ ‘भक्काटा………….! यही तो बनारस है और उसकी असली बनारसियत। मगर आज सुबह जब काका के साथ छत पर चढ़ा तो बनारस में ही मुझे बनारसियत दिखाई नहीं दे रही थी। पतंगे तो आसमान पर ढेरो थी, मगर बनारस की बनारसियत की कमी महसूस हो रही थी।

इस बार बनारस ही नहीं बल्कि पूर्वांचल की धरती की ही बात करते है। बनारस ही क्यों पूरा पूर्वांचल मौज मस्ती को अपनी धरोहर में समेट कर बैठता है। आज भी पूर्वांचल में आम लोगो के तरह बाज़ार से जाकर “पट्टी” न खरीद कर हम गुड को पका कर उसमे छौके लगा कर, उसमे चिनियाबादाम (मुंगफली) के दाने डाल कर नर्म मुलायम पट्टी तैयार होती है। इस पट्टी का स्वाद आप कही और नहीं पा सकते है। बाज़ार की पट्टियों में आप कडापन आपके दांतों सहित मसुडो पर भी नुक्सान पंहुचा सकता है। मगर गाव की सोंधी महक लिए यह नर्म मुलायम पट्टी इसकी तो बात ही कुछ और होती है।

जाड़े के मौसम में गाँव के कोल्हाड़ों में पकने वाले गुड़ की महक किसका ध्यान अपनी ओर नहीं आकर्षित कर लेती थी। गर्म कड़ाहे से उठने वाली गुड़ की सौंधी महक जेहन में आते ही जैसे मुह में उसकी मिठास घुलने लगती थी। किंतु आज खेतों से गन्ना गायब है तो गाँव के खलिहान से कोल्हाड़ और उससे उठने वाली मीठी महक गायब हो गई है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि बचपन में जिस महिया (कड़ाहे के ताजै गुड़ का फेन) के लिए बच्चे, जवान और बूढे सभी लालायित रहते थे आज उसकी सिर्फ यादें शेष  रह गई है। गाँव में अलाव(कऊड़ा)के चारो तरफ बैठ कर गन्ने के चूसने की परम्परा अब विलुप्त हो गई।

शायद इसको तकदीर का खेल कहे अथवा नौकरशाहों की अपनी सोच, गन्ने पूर्वांचल के खेतो से गायब होते जा रहे है। इसका इस बार सबसे बड़ा असर हमको दिखाई दिया कि खिचड़ी जैसे त्योहारों पर भी पट्टिया प्रोफेशनल चूल्हों पर पकी नज़र आई। प्रोफेशनल चूल्हों पर पकी हुई इन पट्टियों में भले हमको मिठास मिले, मगर उस प्यार भरे स्नेह को इस बार मन तरस गया। मुह में गुड से पकी पट्टियों की मिठास जैसे शुगर लेवल बढ़ा देने को बेचैन दिखाई दे रही थी। मगर जो मुहब्बत की मिठास थी, इस सीज़न गायब हो चुकी थी।

बात अगर बनारस और बनारसियत की करे तो हम तो पैदा ही उस बस्ती में होते है जहा लोग मरने की तमन्ना लेकर आते है। हमारी बात थोडा अलग थी, है और रहेगी। मगर लोग समझते बड़ी देर से है। हमारे यहाँ तो गाली भी मुहब्बत और कभी कभी आशीर्वाद की निशानी होती है। थोडा आपको एग्जाम्पल ठेले रहते है। आप अगर बनारस और बनारासियत को जानते है तो एक शब्द को ज़रूर जानते होंगे वह शब्द है ‘भौकाल’। इस शब्द को बनारस ने अपनी इजाद से दुनिया के नज्र किया है। बनारसी भौकाल का नतीजा तो देखे कि एक फिल्मकार ने अपनी फिल्म में इस शहर की सबसे मशहूर गाली के शब्दों को थोडा तमीज़ का चोगा पहना कर अपनी फिल्म में गाने के तौर पर प्रयोग कर डाला। आपको वो गाना तो याद होगा ही “भाग भाग भाग डीके बोस, बोस डीके।”

इस मुल्क ही क्या आप दुनिया में कही घूम आये, आपको बनारस जैसी मस्ती, अल्हड़पन, मासूमियत कही अगर मिल जाए तो कसम कलम की गुलामी लिखवा लूँगा। चेखुरा से लेकर निरहुआ तक बनारस की अल्हड़ता को झिरिक एंड पो के जोक से लेकर कमरुनिया के मजाकिया अल्फाजो में समझना भले ही अधिक पढ़े लिखो के लिए साईंस का सवाल हो जाए मगर ज़िन्दगी तो गुरु बनारस में ही है। हमारे यहाँ धुप नहीं बल्कि घाम होती है, जाते होंगे अन्य शहरों के लोग टॉयलेट, हम तो टॉयलेट ही नहीं जाते है, हम बनारसी तो ‘निपटने’ जाते है। खाना भरपेट नहीं हम खाते है, बल्कि बस चाप के खा लेते है। झगड़े बनारस में सुलझते नहीं, निपटा दिए जाते है। मस्ती और मौज किसी को सीखना है तो हमसे सीखे।

तारिक़ आज़मी
प्रधान सम्पादक
PNN24 न्यूज़

बात अगर बनारस और बनारसियत की हो तो भले ही बनारस को दूर बैठे दूर से देखने वाले मेट्रो सिटी समझे, मगर यह शहर बनारस मासूमियत खुद में समेटे कभी सोता नही है। यहाँ के अल्फाजो को आप भले ही कोई डिक्शनरी लेकर बैठ जाए मगर आपको उसके मायने सिर्फ एक बनारसी ही समझा सकता है। इसी क्रम में बनारस के प्रचलित शब्दों में है “भक्कटाअअअअअअअअअ”। ख़ास तौर पर खिचड़ी में पतंगबाज़ी के दौरान ये शब्द आपको आम बनारसियो के छतो पर सुनाई दे जाता है। अचानक गानों की कर्कश आवाजों के बीच मधुर संगीत जैसा लगने वाला ये शब्द “भक्कटाअअअअअअअअअ” आपके कानो में मिसरी घोल जाएगा। मगर कमबख्त वक्त की बलिहारी तो देखे कि इस बार ये शब्द सुनाने को कान तरस गए। ऐसा लगा कि आधुनिकता की दौड़ में शायद ये लफ्ज़ इस बार गायब हो गया है। खिचड़ी वाले रोज़ आसमान जहा पतंगों से रंगीन रहता था। इस बार इसका उल्टा ही हुआ। आसमान में पतंगे थी मगर नहीं था तो “भक्कटाअअअअअअअअअ”

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