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मौलवी पर लगे धर्मान्तरण के आरोप में इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा ज़मानत न देने पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाया इलाहाबाद हाई कोर्ट को जमकर फटकार, कहा ‘ज़मानत देने में विवेक का इस्तेमाल होना चाहिए’

आफताब फारुकी

डेस्क: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (27 जनवरी) को एक याचिकाकर्ता की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुवे ‘जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी’ करने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट को कड़ी फटकार लगाई और कहा कि उसे उम्मीद है कि उच्च न्यायालय कम से कम जमानत देने का ‘साहस जुटाएगा।’ अदालत ने अपील को स्वीकार करते हुए कहा कि ‘क्योंकि मुकदमा प्रगति पर है और अभियोजन पक्ष के गवाहों की जांच की जा रही है, फिर भी यह उचित मामला है जहां निचली अदालत के नियम-शर्तों के हिसाब से याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया जाए।’

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर0 महादेवन की पीठ एक मौलवी से संबंधित मामले की सुनवाई कर रही थी, जिन पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 504 और 506 तथा उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 की धारा 3 के तहत गैरकानूनी धर्मांतरण कराने के आरोप लगाए गए हैं। शीर्ष अदालत ने निचली अदालतों से जमानत देते समय विवेक का प्रयोग न करने पर सवाल उठाया। लाइव ला के अनुसार पीठ ने कहा, ‘हम समझ सकते हैं कि निचली अदालत ने जमानत देने से इनकार कर दिया क्योंकि निचली अदालतें शायद ही कभी जमानत देने का साहस जुटा पाती हैं, चाहे वह कोई भी अपराध हो। हालांकि, कम से कम हाईकोर्ट से यह उम्मीद की जाती है कि वह साहस जुटाए और अपने विवेक का विवेकपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करे।’

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर आरोप गंभीर नहीं हैं- हत्या, डकैती या बलात्कार से संबंधित तो जमानत याचिका आदर्श रूप से शीर्ष अदालत तक नहीं पहुंचनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कम गंभीर अपराधों के लिए जमानत देने में निचली अदालतों की विवेकाधीन शक्ति पर जोर दिया, खासकर तब जब आरोपों को निर्णायक सबूतों के साथ साबित किया जाना बाकी हो। याचिकाकर्ता पर बौद्धिक अक्षमता वाले नाबालिग का जबरन धर्मांतरण कराने का आरोप लगाया गया था। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि बच्चे को उसकी इच्छा के विरुद्ध मदरसे में रखा गया था और उसका धर्म परिवर्तन कराकर उसे इस्लाम कबूल करवाया गया था। वहीं, याचिकाकर्ता का कहना था कि बच्चे के माता-पिता ने उसे छोड़ दिया था और मौलवी ने उसे पूरी तरह मानवीय कारणों से शरण दी थी। उन्होंने कहा कि कोई धर्मांतरण नहीं हुआ था।

रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्होंने इस आधार पर रिहाई की मांग की कि वे पहले ही 11 महीने हिरासत में बिता चुके हैं, मुकदमा अभी भी अधूरा है, तथा अभियोजन पक्ष ने पहले ही अपने गवाहों की जांच कर ली है। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट द्वारा जमानत देने से इनकार करने के बाद याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए शीर्ष अदालत ने कहा, ‘हम इस तथ्य से अवगत हैं कि जमानत देना विवेक का मामला है। लेकिन विवेक का इस्तेमाल न्यायिक रूप से जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। विवेक का मतलब यह नहीं है कि न्यायाधीश अपनी मर्जी से यह कहकर जमानत देने से मना कर दे कि धर्मांतरण बहुत गंभीर बात है। याचिकाकर्ता पर मुकदमा चलाया जाएगा और अंततः अगर अभियोजन पक्ष अपना मामला साबित करने में सफल होता है, तो उसे दंडित किया जाएगा।’

अदालत ने ट्रायल कोर्ट के आचरण पर भी तीखी टिप्पणी की। अदालत ने कहा, ‘हर साल ट्रायल जजों को यह समझाने के लिए इतने सारे सम्मेलन, सेमिनार, कार्यशालाएं आदि आयोजित की जाती हैं कि जमानत आवेदन पर विचार करते समय उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए, मानो ट्रायल जजों को सीआरपीसी की धारा 439 या बीएनएसएस की धारा 483 का दायरा ही नहीं पता है।’

अदालत ने कहा, ‘कभी-कभी जब उच्च न्यायालय इस प्रकार के मामलों में जमानत देने से इनकार करता है, तो इससे यह आभास होता है कि पूरी तरह से अलग-अलग बातों पर विचार किया गया है और पीठासीन अधिकारी ने जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी की है।’ शीर्ष अदालत ने इस तरह के मामले में जमानत देने के खिलाफ दलील देने के लिए अभियोजन पक्ष को भी फटकार लगाई, जिसके कारण शीर्ष अदालत में लंबित मामलों की संख्या बढ़ गई और जमानत याचिकाओं की बाढ़ आ गई। अदालत ने कहा, ‘हम यह समझने में विफल हैं कि अगर याचिकाकर्ता को उचित नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा कर दिया जाता तो अभियोजन पक्ष को क्या नुकसान होता। यही कारण है कि उच्च न्यायालयों और अब दुर्भाग्य से देश के सर्वोच्च न्यायालय में जमानत अर्जियों की बाढ़ आ गई है।’

 

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