तारिक आज़मी
डेस्क: मौनी अमावस्या के महापर्व पर महाकुंभ में स्नानार्थियों की मौत और उससे कहीं अधिक लोगों का घायल हो जाना बहुत ही दुखद स्थिति है। लेकिन इस बेशुमार और अनियंत्रित महारेले में और भी अधिक भयावह स्थिति पैदा हो सकती थी। मगर अगर हकीकत देखा जाए तो कोई ऐसा नहीं कि हादसा किसी बड़ी प्रशासनिक गलती का नतीजा हो, या फिर किसी की लायिकियत पर सवाल उठाया जा सके।
अभी कुछ ही समय पहले तिरुपति में भी तो भगदड़ हादसा हुआ था। पिछले ही साल उत्तर प्रदेश के हाथरस के धार्मिक समागम की भगदड़ में 121 लोग मारे गए थे। उससे भी पहले वैष्णो देवी का हदसा हो चुका था। महाकुंभ का तो भगदड़ों का लंबा इतिहास है। इससे पहले 1840, 1906, 1954, 1986, 2003, 2010 और 2013 के भी कुंभ में भगदड़ों का इतिहास उपलब्ध है। सन 1954 के इलाहाबाद महाकुंभ की भगदड़ के हताहतों की सही संख्या सामने नहीं आई। किसी ने 350 तो किसी ने 800 तक हताहतों की संख्या का आंकलन किया था।
लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री स्वयं कह चुके हैं कि हादसे का असली कारण अत्यधिक भीड़ थी। इससे पहले सरकार की ओर से प्रचारित किया जा रहा था कि धरती के इस महाआयोजन में 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं के पहुंचने की आशा है। हर रोज स्नानार्थियों के आंकड़े सरकारी तौर पर भी प्रचारित होते रहे और राज्य सरकार असीमित भीड़ के पहुंचने से गदगद होती रही। जबकि दो महीनों के अंदर एक छोटे-से स्थान पर 45 करोड़ लोगों का एकत्र होना बहुत भारी जोखिम की बात थी और इसके लिए भीड़ नियंत्रण और प्रबंधन के पहले ही पुख्ता इंतजाम होने चाहिए थे।
लेकिन मेला क्षेत्र को जितना चाहो उतना फैला दो मगर स्नान घाट या गंगा तट की लंबाई तो गंगा नदी की लंबाई तक ही सीमित रहेगी। उस पर भी लोग धार्मिक महत्व की परिकल्पना से कुछ खास घाटों पर ही स्नान करना चाहते हैं, जिससे कुछ खास स्थानों पर भीड़ का दबाव और भी असहनीय हो जाता है। इसलिए उन घाटों की क्षमता के हिसाब से ही भीड़ का प्रबंधन होना चाहिए था। हरिद्वार में भले ही लोग ‘हर की पैड़ी’ पर स्नान करने की लालसा रखते हैं फिर भी वहां संगम नहीं है और गंगा का तट काफी लंबा है, जहां लोग कहीं भी स्नान कर सकते हैं।
दरअसल, सरकारें भीड़ के उफान को अपनी कामयाबी का पैमाना मान लेती हैं। कुंभ ही क्यों, उत्तराखंड की चारधाम यात्रा के भीड़ अर्जन की भी यही कहानी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन् 2000 में चारधाम यात्रा पर कुल 12,92,411 तीर्थयात्री पहुंचे थे, जिनकी संख्या 2024 में 45,44,975 तक पहुंच गई थी। यात्री संख्या में इस भारी उछाल को सरकारें अपनी उपलब्धि मान रहीं हैं। जबकि सरकार द्वारा इतनी भारी भीड़ का पूरे संसाधन झोंकने पर भी सही प्रबंधन नहीं हो पाता और पर्यावरणीय हानि तो गिनती में ही नहीं है।
विख्यात धर्मस्थलों के अलावा संत महात्मा, अध्यात्मिक गुरु भी अपने प्रवचनों और संत समागमों के लिए भीड़ जुटाते रहते हैं। पिछले ही साल हाथरस में भोले बाबा के धार्मिक समागम में हुई भगदड़ में 121 श्रद्धालुओं की जानें चलीं गईं थी। ऐसी भी एक भगदड़ 9 नवंबर 2011 को हरिद्वार के शांतिकुंज के समागम में हुई थी।
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