डॉ मोहम्मद आरिफ – वो लम्हे जो गिरीश कर्नाड के संग बिताये, कभी न भूल पाऊंगा

डॉ मोहम्मद आरिफ

बात 1990 के दशक की है जब मैं प्रो.इरफान हबीब के एक आमंत्रण पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास, उच्च अध्धयन केंद्र में एक माह के लिए विज़िटर्शिप के लिए गया हुआ था।इत्तफाक से उन्ही दिनों गिरीश जी भी अपने एक नाटक को जीवंतता और तथ्यपरक बनाने के लिए प्रो हबीब के पास आये हुए थे। इरफान साहब ने  मेरा परिचय बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के नौजवान इतिहासविद और कम्युनिज्म और कांग्रेसियत के अद्भुत समावेशी व्यक्तित्व के रूप में कराया तो कारनाड ने मुस्कुराते हुए कहा कि ये diversity (विविधता) पर तो कब की जंग लगनी शुरू हो चुकी है तुम किस दुनिया से आये हो भाई। और फिर एक लंबी सांस खींचते हुए कहा कि हां समझ में आ गया ग़ालिब भी तो तुम्हारे शहर में जाकर गंगा स्नान करके इसी diversity का शिकार हो चला था और दारा शिकोह वली अहद से इंसान बन बैठा था।

इतिहास की उनकी समझ बहुत व्यापक थी। अजीब अजीब सवाल उनके मन में उभरते थे एक एक्टिविस्ट की तरह। वाकई उनका पूरा जीवन ही एक्टिविज्म करते बीता। व्यवस्था के खिलाफ उनका संघर्ष मित्र और अमित्र में भेद नही करता था।वे तो सिर्फ बेहतर समाज बनाने और विरासत को बचाये रखने वाले अपराजित योद्धा थे। माध्यम कवि संगीत, कभी नाटक कभी अभिनय कभी एक्टिंग तो कभी सामाजिक सरोकारों के विभिन्न मंच रहे जहां वे निर्भीक खड़े होकर हम जैसे अनेक लोगों का मार्गदर्शन करते रहे।

उनका इतिहास को देखने का नज़रिया वैज्ञानिक और खोजी था।चलते चलते उन्होनें मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कि एक मुलाकात आपसे शाम में तन्हाई में होनी चाहिए आपको भी कुछ जान परख लेते है।मैने  कहा कि सर इरफान साहब से तथ्य आधारित बातचीत के एक लंबे दौर के बाद बचता ही क्या है बताने के लिए,और मैं भी तो इरफान साहब का एक अदना से विद्यार्थी हूँ।

गिरीश जी ने मुस्कुराते हुए कहा भाई इतिहासकार तथ्यों की मौलिकता को बचाये रखते हुए अपनी परिस्थितियों और वातावरण के अनुकूल व्याख्या करता है। आपके शहर और आपके उस्तादों के नजरिये ने आपको इतिहास देखने परखने की जो दृष्टि दी है वो दृष्टिकोण भी हमारे लिए बहुत मायने रखता है। कर देर रात्रि तक उस दिन एकांत चर्चा चलती रही। कारनाड जी मोहम्मद तुग़लक़, अकबर, औरंगजेब और बहादुर शाह जफर के बारे में तमाम जानकारियों पर बहस करते रहे। उन्हें नेहरू और इंदिरा गांधी में भी दिलचस्पी थी। उनका इतिहास ज्ञान अदभुत था और जिज्ञासा तो शांत ही नही होती थी। कई बार अनुत्तरित कर देते थे।

मजेदार बात ये रही कि बाद में हम सब अपनी अपनी दुनियां में लौट आये और खो गए पर गिरीश जी को ये बात याद रही जब 1994-95 के दौरान दिल्ली में तुग़लक़ नाटक का मंचन हुआ तो सम्मानजनक ढंग से हमें बुलाना न भूले। आज हम ऐसे दौर से गुजर रहे है जब इतिहास के तथ्य रोज तोड़े मरोड़े जा रहे है और अप्रशिक्षित राजनीतिक हमें इतिहास पढ़ा रहे है गिरीश तुम्हारा होना नितांत आवश्यक था। तुम चले गए और हमे ये जिम्मेदारी देकर की हम इतिहास की मूल आत्मा को न मरने दें। बड़ा गुरुतर भार देकर और अपनी पारी बेहतरीन और खूबसूरत खेलकर गए हो। इतिहास सदैव तुम्हे याद रखेगा।

   श्रद्धांजलि

 डॉ मोहम्मद आरिफ

(लेखक वाराणसी में इतिहास के प्रोफ़ेसर है)

हमारी निष्पक्ष पत्रकारिता को कॉर्पोरेट के दबाव से मुक्त रखने के लिए आप आर्थिक सहयोग यदि करना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें


Welcome to the emerging digital Banaras First : Omni Chanel-E Commerce Sale पापा हैं तो होइए जायेगा..

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *