नहीं रहे “मैं भी शहरी नक्सल” की तख्ती उठाने वाले गिरीश कर्नाड, जाने उनके सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी
तारिक आज़मी
जाने माने अभिनेता, फ़िल्म निर्देशक, नाटककार, लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता गिरीश कर्नाड का निधन हो गया है। बीते महीने ही वह 81 वर्ष के हुए थे। गिरीश कर्नाड का जन्म 1938 में हुआ था। गिरीश कर्नाड के निधन पर मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने कर्नाटक में तीन दिवसीय राजकीय शोक की घोषणा की। इस दौरान एकदिवसीय सार्वजनिक छुट्टी का ऐलान भी किया गया।
गिरीश कर्नाड ने 1970 में कन्नड़ फ़िल्म ‘संस्कार’ से अपना फ़िल्मी सफ़र शुरू किया। उनकी पहली फ़िल्म को ही कन्नड़ सिनेमा के लिए राष्ट्रपति का गोल्डन लोटस पुरस्कार मिला। आर के नारायण की किताब पर आधारित टीवी सीरियल मालगुड़ी डेज़ में उन्होंने स्वामी के पिता की भूमिका निभाई जिसे दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था और यह आज भी उतनी ही मशहूर है। 1990 की शुरुआत में विज्ञान पर आधारित एक टीवी कार्यक्रम टर्निंग पॉइंट में उन्होंने होस्ट की भूमिका निभाई जो तब का बेहद लोकप्रिय साइंस कार्यक्रम था।
इसके अलावा उन्होंने हिंदी में ‘निशांत’ (1975), ‘मंथन’ (1976) और ‘पुकार’ (2000) जैसी फ़िल्में कीं। नागेश कुकुनूर की फ़िल्मों ‘इक़बाल’ (2005), ‘डोर’ (2006), ‘8×10 तस्वीर’ (2009) और ‘आशाएं’ (2010) में भी उन्होंने काम किया। इसके अलावा सलमान ख़ान के साथ वो ‘एक था टाइगर’ (2012) और ‘टाइगर ज़िंदा है’ (2017) में अहम किरदार में दिखे। इन फिल्मो में उनके अभिनय को खूब सराहा भी गया।
गिरीश कर्नाड की पहचान नाटककार, लेखक और निर्देशक के रूप में रही है। लेकिन, कई मायनों में उन्हें न सिर्फ़ कर्नाटक बल्कि देश में ‘अंतरात्मा की आवाज़ सुनने’ वाले के रूप में जाना जाता रहा है। कई लोग उनके निधन के बाद भी सोशल मीडिया पर अपनी टिप्पणियों में उनके लिए सख़्त लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले कुछ सालों में विभिन्न मसलों पर उन्होंने अपना अलग रुख़ रखा, फिर चाहे वो अठारहवीं सदी के शासक टीपू सुल्तान का मुद्दा रहा हो या फिर नोबेल विजेता साहित्यकार वीएस नायपॉल का या फिर शहरी नक्सल का मुद्दा। एक कार्यक्रम में तो वह हाथो में मैं भी अर्बन नक्सल की तख्ती लेकर पहुचे थे। अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए मशहूर गिरीश कर्नाड ने ऐसा नही कि वर्तमान सरकार की ही आलोचना किया हो। वह आलोचक नही बल्कि स्पष्टवादी विचारधारा के थे। कर्नाड सही मायने में ऐसे बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने किसी पर रियायत नहीं बरती थी।
वह अपने विचारों को व्यक्त करने में क़त्तई नहीं हिचकिचाते थे और वो भी अपने अंदाज़ में, फिर चाहे सत्ता में कांग्रेस की सरकार रही हो, या फिर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन। गिरीश कर्नाड ने पहली मर्तबा सख़्त रुख़ 44 साल पहले अपनाया था। उस समय वो भारतीय फ़िल्म टेलीविज़न संस्थान यानी एफ़टीआईआई के निदेशक थे। इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल का विरोध करते हुए उन्होंने एफ़टीआईआई के निदेशक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। आपातकाल लागू करने के तुरंत बाद सरकार ने उन्हें तत्कालीन सरकार के प्रमुख नेताओं की प्रशंसा में फ़िल्में बनाने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्होंने इससे इनकार करते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।
17 साल बाद, केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता पर अयोध्या में एक सम्मेलन आयोजित किया था। ऐसा उन्होंने तब किया था, जब वो व्यक्तिगत तौर पर वाजपेयी और रथयात्रा का नेतृत्व करने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को जानते थे। कर्नाड की सांप्रदायिक सौहार्द को लेकर प्रतिबद्धता बड़े पैमाने पर इतिहास के उनके गहन अध्ययन का विस्तार थी, जहाँ उन्होंने चिंतन किया और तुगलक़, द ड्रीम्स ऑफ़ टीपू सुल्तान, ताले डंडा जैसे नाटक लिखे। कुछ साल पहले मुंबई के साहित्य सम्मेलन में उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल को लाइफ़टाइम अचीवमेंट पुरस्कार सम्मान दिए जाने के लिए आयोजकों की आलोचना की थी। इसके बाद वह एक बार फिर काफी चर्चा में आये थे। तब कर्नाड ने कहा था कि वह (नायपॉल) निश्चित रूप में हमारी पीढ़ी के महान अंग्रेज़ी लेखकों में से हैं। लेकिन इंडिया-ए वुंडेड सिविलाइजेशन किताब लिखने से लेकर उन्होंने कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ा जब वो मुसलमानों के ख़िलाफ़ न दिखे हों और मुसलमानों पर पाँच शताब्दियों तक भारत में बर्बारता करने का आरोप न लगाया हो।
2014 के लोकसभा चुनावों के ठीक बाद एक ऑनलाइन वेबसाइट को दिए एक इंटरव्यू में कर्नाड ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार चलाने में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘कमज़ोर दिलवाला’ बताया था। पिछले साल, गौरी लंकेश की पहली बरसी पर कर्नाड ने मौन प्रदर्शन किया था। इस दौरान वो एक प्लेकार्ड पहने दिखाई दिए थे, जिसमें लिखा था #Metoo Urban Naxal यानी मैं भी शहरी नक्सल। उनका तर्क एकदम स्पष्ट था कि अगर ख़िलाफ़ बोलने का मतलब नक्सल है, तो मैं भी शहरी नक्सल हूँ।