अयोध्या प्रकरण और गोपाल सिंह विशारद – मौत के 33 सालो बाद मिली को पूजा की इजाज़त
हर्मेश भाटिया
लखनऊ. इन्साफ के लिए कभी कभी एक जन्म भी कम पड़ जाता है। इसका जीता जागता एक उदहारण सामने आया है जब अयोध्या प्रकरण में फैसला आया है। ज्ञातव्य हो कि अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मामले में विवादित भूमि हिंदू पक्ष को देने का फ़ैसला किया गया है। साथ ही सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को भी उपयुक्त जगह पर 5 एकड़ ज़मीन अलग से देने का आदेश दिया गया है।
लेकिन इस फ़ैसले के साथ एक और नाम चर्चा में है। ये नाम है दिवंगत गोपाल सिंह विशारद का। 69 साल बाद आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट ने गोपाल सिंह विशारद को वहां पूजा करने का अधिकार दे दिया है। लेकिन यह फ़ैसला उनकी मौत के 33 साल बाद आया है। इस फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया देने वाले इस दुनिया से 33 साल पहले ही रुखसत हो चुके है।
क्या रहा मामला
अयोध्या विवाद पर शुरुआती चार सिविल मुक़दमों में से एक गोपाल सिंह विशारद ने दायर किया था। गोपाल सिंह विशारद और एम। सिद्दीक दोनों ही राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में मूल मुद्दई थे ओर दोनों का ही निधन हो चुका है। बाद में उनके कानूनी वारिसों ने उनका प्रतिनिधित्व किया। दावा है कि 22-23 दिसंबर 1949 की रात अभय रामदास और उनके साथियों ने दीवार फाँदकर राम-जानकी और लक्ष्मण की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रख दीं और यह प्रचार किया कि भगवान राम ने वहाँ प्रकट होकर अपने जन्मस्थान पर वापस क़ब्ज़ा प्राप्त कर लिया है।
इसके बाद 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज की अदालत में सरकार, ज़हूर अहमद और अन्य मुसलमानों के खिलाफ़ मुक़दमा दायर कर कहा कि ‘जन्मभूमि’ पर स्थापित भगवान राम और अन्य मूर्तियों को हटाया न जाए और उन्हें दर्शन और पूजा के लिए जाने से रोका न जाए। सिविल जज ने उसी दिन यह स्थागनादेश जारी कर दिया, जिसे बाद में मामूली संशोधनों के साथ ज़िला जज और हाईकोर्ट ने भी अनुमोदित कर दिया। स्थगनादेश को इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनौती दी गई जिससे फ़ाइल पाँच साल वहाँ पड़ी रही।
इस दौरान जिला मजिस्ट्रेट जेएन उग्रा ने सिविल कोर्ट में अपने पहले जवाबी हलफ़नामे में कहा, “विवादित संपत्ति बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाती है और मुसलमान इसे लंबे समय से नमाज़ के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इसे राम चन्द्र जी के मंदिर के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाता था। 22 दिसंबर की रात वहाँ चोरी-छिपे और ग़लत तरीक़े से श्री रामचंद्र जी की मूर्तियाँ रख दी गई थीं।
कुछ दिनों बाद दिगंबर अखाड़ा के महंत रामचंद्र परमहंस ने भी विशारद जैसा एक और सिविल केस दायर किया। परमहंस मूर्तियाँ रखने वालों में से एक थे और बाद में विश्व हिंदू परिषद के आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका थी। इस मुक़दमे में भी मूर्तियाँ न हटाने और पूजा जारी रखने का आदेश हुआ। कई साल बाद 1989 में जब रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने स्वयं भगवान राम की मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति क़रार देते हुए नया मुक़दमा दायर किया जिसके बाद परमहंस ने अपना केस वापस कर लिया।
मूर्तियाँ रखे जाने के क़रीब दस साल बाद 1951 में निर्मोही अखाड़े ने जन्मस्थान मंदिर के प्रबंधक के नाते तीसरा मुक़दमा दायर किया। इसमें राम मंदिर में पूजा और प्रबंध के अधिकार का दावा किया गया। दो साल बाद 1961 में सुनी वक़्फ़ बोर्ड और नौ स्थानीय मुसलमानों की ओर से चौथा मुक़दमा दायर हुआ इसमें न केवल मस्जिद बल्कि अग़ल-बग़ल क़ब्रिस्तान की ज़मीनों पर भी स्वामित्व का दावा किया गया। जिसमे ज़िला कोर्ट इन चारों मुक़दमों को एक साथ जोड़कर सुनवाई करना शुरू कर दिया। दो दशक से ज़्यादा समय तक यह एक सामान्य मुक़दमे की तरह चलता रहा और इस दौरान अयोध्या के स्थानीय हिंदू-मुसलमान अच्छे पड़ोसी की तरह रहते रहे।
1986 में गोपाल सिंह विशारद की मौत हो गई थी। उनकी मौत के बाद उनके बेटे राजेंद्र सिंह केस की पैरवी कर रहे थे। उनकी अर्ज़ी पर सुन्नी पक्ष के वकील राजीव धवन ने कहा था कि गोपाल सिंह विशारद ने पूजा के व्यक्तिगत अधिकार का दावा करते हुए मुक़दमा किया था और अब उनकी मौत के बाद उनकी याचिका का कोई औचित्य नहीं रहा।