तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – तीन महीने की मासूम फातिमा नही बल्कि इंसानियत ने शायद बंद कर लिया हमेशा के लिए अपनी आँखे
तारिक आज़मी
वो मासूम थी। महज़ तीन महीने तो ही हुवे थे उसको दुनिया में कदम रखे हुवे, ढंग से उसने अपनी आँखे भी नही खोली थी। शायद माँ और बाप का चेहरा पहचानती थी। लोग खिलाते थे। वो मुस्कुराती थी। उसको भी जीने की तमन्ना रही होगी। माँ बाप गरीब ही सही मगर उनकी आँखों का तारा थी वह। उनके दिलो का सुकून थी। चिकित्सा के क्षेत्र बने कारोबार ने उसकी साँसे छीन लिया। शिवप्रसाद गुप्त मंडलीय चिकित्सालय में सिमित साधनों के बीच डाक्टरों की लाखो कोशिशो के बाद भी उसको बचाया नही जा सका और अहल-ए-सुबह लगभग 3:30 बजे फातिमा जोया ने अपनी आखरी सांस लेकर इस दुनिया से रुखसत कह दिया।
क्या हुआ था फातिमा जोया को
फातिमा जोया नाम की एक बच्ची जिसकी उम्र तीन महीने थी को निमोनिया की समस्या थी। कच्ची बाग़ स्थित एक प्राइवेट चिकित्सक द्वारा उसका इलाज किया जा रहा था। परिजनों की माने तो जब पैसे खत्म हो गए तो उस प्राइवेट चिकित्सक ने आगे इलाज करने से मना कर दिया और कहा हालत सीरियस है लेकर इसको अस्पताल जाओ। बच्ची को गेस्ट्रो की भी समस्या उत्पन्न हो चुकी थी जिसके कारण उसका पेट इन्फेक्शन से काफी फुल गया था। इसके बाद उसको पेशाब भी बंद हो गया। देर रात को परिजन उस बच्ची को लेकर पीलीकोठी के एक चैरिटी वाले अस्पताल पहुचे। बच्चे का परचा काट कर उसके परिजनों को थमा कर कहा गया कि बच्चा रोग विशेषज्ञ के पास जाकर उनसे मुलाकात का अपाइंटमेंट ले ले। इसके बाद न मुलाकात हुई और न अपाइंटमेंट मिला। यहाँ तक कि उस चिकित्सक ने देर रात दरवाज़ा तक खोलना मुनासिब नही समझा था।
कैसे मिली फातिमा जोया
कल देर रात जब मैं अपने एक व्यक्तिगत काम से वापस आ रहा था। तभी देखा कि हरतीरथ पर एक प्राइवेट चिकित्सक के क्लिनिक का दरवाज़ा दो नकाबपोश महिलाये एक पुरुष के साथ पीट रही है। सड़क पर वही दो पुलिस कर्मी भी परेशान होकर उन लोगो की मदद कर रहे थे। मामला गंभीर दिखाई देने पर मैंने अपनी बाइक रोक दिया और उनसे इस बेचैनी का सबब पूछा। पुलिस कर्मियों ने बताया कि इस बच्ची की तबियत काफी ख़राब है। चैरिटी के अस्पताल ने इन चिकित्सक महोदय के यहाँ मुलाकात का समय लेने भेजा है। पुलिस कर्मियों ने भी मुझसे सहायता करने को कहा।
क्षेत्रीय होने के कारण मैं चिकित्सक महोदय का आवास जानता हु। वैसे तो मरीजों को हर वक्त डॉ साहब देख लेते है और रोज़ ही क्लिनिक के बाहर लम्बी लाइन लगवा कर मरीज़ देखते है। मेरे साथ परिजन और पुलिस कर्मी भी चिकित्सक महोदय के आवास पर गए। साहब के डोर बेल की भी घंटी बजी हुई थी और स्वीच निकाल दिया गया था। चैनल हम सभी ने लगभग आधे घंटे तक पीटा। सभी ने जोर जोर से आवाज़ दिया। मगर डॉ साहब शायद बहुत ही गहरी नींद सो रहे थे। उसमे उनको खलल न पहुचे तो शायद मकान भी साउंड प्रूफ रहा होगा। आसपास के लोग जग गए मगर डाक्टर साहब के घर से कोई झंका तक नहीं।
चिकित्सक बने पत्थरदिल
शायद इसको इंसानियत की मौत ही कहा जायेगा कि डाक्टर साहब ने झाकना ताकना छोड़े सास तक नही लिया। इस बीच मैंने अपने एक बचपन के दोस्त पडीयाट्रिक चिकित्सक को फोन किया। देर रात दो बजे तक जागने वाले मेरे चिकित्सक मित्र ने कई काल जाने के बाद काल बैक किया। शायद खुद की भी गरज होती तो मैं उनको इतने फोन नही करता, मगर बात एक मासूम के जान की थी। आखिर कई फोन काल के बाद साहब ने वापस काल बैक दिया। मैंने उन्हें स्पष्ट स्थिति बताई और बच्ची के इलाज की इल्तेजा किया।
वैसे तो साहब ने आज तक मेरी कोई बात टाली नही थी, मगर साहब ने तुरंत कोरोना के हालात का ज़िक्र किया और बच्चे के इलाज से साफ़ साफ़ इनकार कर दिया। शायद मेरे मित्र महोदय चिकित्सक के काफी ऊपर के चिकित्सक हो गए है। इंसानी जान बचाने के खातिर देश के चिकित्सक अपनी जान पर खेल कर आम नागरिको की जान बचा रहे है। मगर ये मान्यवर शायद अपने पेशे से भी इस बार इन्साफ करते हुवे नही नज़र आये। शायद खुद के पेशे से इंसान को कुछ ईमानदारी दिखानी चाहिए। माना पैसा दुनिया में बहुत कुछ होता है, मगर पैसा ही सब कुछ होता है ऐसा भी नही है। पैसे से आप सबकुछ खरीद सकते है। मगर आप पैसे से सुकून की साँसे नही खरीद सकते है। शायद ये किसी गरीब की बेटी न होती और किसी बड़े अमीर की बेटी होती तो शायद दोनों चिकित्सक ही अपनी पूरी भूमिका निभा रहे होते नज़र आते। शायद डाक्टर साहब फिर केप्री में ही आ गए होते।
सरकारी अस्पताल के चिकित्सक ने किया कड़ी मेहनत
इसके बाद कोई अन्य आप्शंस नज़र नहीं आ रहा था। मासूम बच्ची को लेकर मंडलीय चिकित्सालय पंहुचा। जहा मौके पर मौजूद डॉ ओमप्रकाश ने जाँच के बाद स्थिति को स्पष्टतः बताया कि मरीज़ में कुछ करने लायक बचा नही है। एनएसआईयु की आवश्यकता है। जिसकी सुविधा यहाँ उपलब्ध नही है। मरीज़ के पास कोई ख़ास समय नही बचा है। बच्ची के परिजन इलाज शुरू करने की सहमती चिकित्सक को दे दिया। डॉ ओमप्रकाश ने लगभग 3 घंटे स्टाफ नर्स सहित मेहनत किया। मगर आखिर में होनी को कौन टाल सकता है। रात के 3:30 बजे के लगभग मासूम बच्ची ने आखरी सांस लिया।
सिर्फ मासूम फातिमा ही नही बल्कि शायद इंसानियत ने आँखे बंद किया
मासूम फातिमा दुनिया छोड़ कर जा चुकी थी। इस फानी दुनिया में मतलब के लोग ही शायद उसको दिखे होंगे। शायद वो गरीब बाप की बेटी थी वरना भला डाक्टर साहब ऊपर से उतर के नीचे न आते, शायद किसी अमीर बाप की बेटी होती तो डॉ साहब जिन्होंने कोरोना का खौफ दिखा कर पेशेंट को मिलने तक से इनकार कर दिया वह शायद अपनी सुरक्षा नहीं देख खुद बिना मास्क के आकर उसका इलाज करते। मगर ये तो एक गरीब आदमी की बेटी थी। उसके लिए रिस्क कौन लेता है। उसके लिए तो सरकारी अस्पताल है ही। आखिर क्या फायदा गरीब का इलाज करके। इतने बड़े अस्पताल को बनवाया है उसमे पैसे लगे है फिर कहा से आएगा,
मगर इतना याद रखे, जिसका कोई नही उसका खुदा होता है ये बात सब सुन चुके है। ये फातिमा ने सिर्फ आँख बंद नही किया है बल्कि इंसानियत ने अपनी आँखे बंद कर लिया है। दिल रो पड़ा था कि एक गरीब की बेटी का इलाज करने कोई अमीर डाक्टर नही आया सामने।