आशु खान की चकरघिन्नी- न सबला, न सुरक्षित, न सक्षम।

                  आशु खान की कलम से निकला ज्वालामुखी 

दिल्ली के तख्त से एक आवाज़ आई, मर्द कौन होता है महिलाओं को सशक्त करने वाला, वे तो खुद ही सशक्त है! दूसरों को नसीहत, खुद की फजीहत, को चरितार्थ करते यह बोल बोलने वाले मर्द ने खुद कभी एक औरत का दर्द नहीं समझा, औरत के हको की बलि चढ़ाते आधी से भी बहुत ज्यादा जिन्दगी अकेले गुजार दी। इसी शख्स और इसकी पार्टी से जुड़े लोगों ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में एक औरत को सत्ता से दूर रखने कितना कुछ न कहा, देश भूला नहीं है। केन्द्र से लेकर सत्ता के शीर्ष में और छोटे स्तर पर सियासत से जुड़ी महिलाओं की अपने अधिकारों पर कितनी पकड़ है और हक के नाम पर कितना हासिल हो रहा है, यह भी भलीभाँति सब जानते हैं।

सरकारी/गैर सरकारी नौकरियों से लेकर समाज की मुख्य धारा तक में दमन का प्रतीक बन चुकी महिलाओं के नाम पर साल में एक दिन का आयोजन कर लिया जाना मर्द प्रधान इस समाज की सोच बदलने के लिए काफी नहीं है। आज हम बेटे और बेटी के लिए उसकी पढाइ से लेकर नौकरी और उसके लिए खेल के चयन तक में चूजी हैं। लाडली, दुलारी, सुकन्या, निर्भया का नाम देने और बेटियों से एक रिश्ता खास एलान करने वाले मप्र को ही उनके चारित्रिक और शारीरिक दमन का अव्वल दर्जा हासिल है। जेल में बंद विदेशी महिला गर्भवती हो जाती है। पुरुष पसंद समाज की सोच का आलम यह कि विधानसभा रिपोर्टिंग करने पहुंची महिला पत्रकार को को ताज्जुब भरी नज़र के सिवा कुछ हासिल नहीं। जन्म के बाद जमीन में दफ़न कर दिए जाने की परंपरा समाज बदल का सूचक नहीं कही जा सकती, अब तो पैदा होने का इन्तजार किए बिना गर्भ में ही कत्ल कर दिए जाने का रिवाज आम हो चला है। मन्च से उछलते जुमले, फाइलों में दौड़ती सशक्तिकरन योजनाएं ही अगर महिला समानता की तस्दिक हैं तो समाज बहुत बदल चुका। लेकिन जमीनी हकीकत इसके विपरीत है, बिना दहेज कई बेटियाँ घरों में बैठी हैं तो कई आग के हवाले की जा रही, सरेआम बस-टैक्सी में चीर हरण हो रहा है, औरत को जलील करने का कोई मौका मर्द नहीं छोड़ रहा। औरत की कहानी अब भी वही है, जो सदियों पहले थी, शब्दों के आवरण डालने से कुछ नहीं बदलने वाला है।

पुछल्ला
राजधानी की एक महिला पत्रकार कई की किरकिरी बनी हुई है। ठेठ बुन्देलखन्ड की इस बेटी को उस दौर भी परेशान किया जाता रहा, जब वह किसी बनिये की चाकरी कर रही थी। सिलसिला अब भी जारी है, जब वह एकला चलो रे के नारे के साथ खुद कुछ करना चाह रही। वजह सिर्फ एक, तेजतर्रार वाणी, तीखे-तीखे सपाट शब्द। परेशानी उन लोगों को है, जिनके शब्द चापलूसी की चाशनी में डुबकी लगाकर अपने मफाद पूरे करने की महारत रखते हैं।

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