दो जून के रोटी की मज़बूरी, बनारस में कर रहे बाबर के वंशज मज़दूरी।

                    तारिक़ आज़मी की कलम से वक्त के आंसु
कहते हैं वक्त बहुत बलवान होता है । कल तक जिनके पुरखो के दरवाज़ों पर घोड़े और शाही बग्गियां खड़ी रहती थीं तथा नौकर चाकर जी हजूरी में आगे पीछे घूमते थे आज उसी बादशाह बाबर के खानदानी इस कदर गुमनाम और तंगहाल कि मजदूरी करके जिंदगी की गाड़ी खींच रहे हैं।
गोविंदपुरा (छत्तातले) की संकरी गली में छोटी मस्जिद के पास एक तीन मंजिला मकान है- सीके 43/84-1। इसी मकान के एक छोटे से कमरे में हथौड़ी चलाकर चांदी के तारों को वर्क की शक्ल देने में जुटे बुजुर्ग मिर्जा आलमगीर हैं। पुरखों ने कभी हिन्दुस्तान पर हुकूमत की मगर उनकी हुकूमत में विरासत में मिला यह मकान है, जिसके किराये और खुद की मजदूरी से घर चलता है। हुकूमत की नाराजगी से खुद की हिफाजत ही उनके पुरखों के दिल्ली छोड़कर बनारस आ बसने की वजह बनी। बकौल मिर्जा आलमगीर, शहजादे जहांदार शाह का अपने वालिद शहंशाह शाहआलम से किसी बात पर झगड़ा हो गया था।

शाहआलम की नाराजगी के चलते जान जाने के अंदेशे में उन्होंने दिल्ली से लखनऊ होते हुए बनारस में आकर शरण ले ली। यह बात करीब 220 साल पुरानी है। वंशावली के मुताबिक शाहआलम (द्वितीय) के दो बेटे अकबर शाह (द्वितीय) और जवां बख्त उर्फ जहांदार शाह थे। मिर्जा आलमगीर बख्त जहांदार शाह के बाद की सातवीं पीढ़ी से हैं। शाही खानदान का सदस्य होने के नाते उनके कुनबे को पहले बाकायदा पेंशन मिलती थी। उनके वालिद फरीदुद्दीन भी पेंशनयाफ्ता थे। यह मकान उन्हीं ने बनवाया था। मिर्जा आलगीर ने पढ़ाई-लिखाई की नहीं और जब कुनबे की जिम्मेदारी सिर पर आ पड़ी तो समझ में न आया कि कहां से शुरू करें। उन्होंने मकान के कमरे किराए पर लगा दिए। बचपन में सीखा वर्क बनाने का हुनर काम आ गया। उन्होंने इसी काम को आजीविका बना लिया। बेगम आकिला भी सिलाई करके जिम्मेदारी बांट लेती हैं।
सरकार की ओर से मिर्जा आलमगीर के परिवार को शाही खानदान का प्रमाण पत्र जरूर मिला हुआ है मगर इस नाते मिलने वाली पेंशन 53 साल पहले बंद हो चुकी है। आलमगीर के वालिद मिर्जा फरीदुद्दीन बख्त को 1925 से ही रॉयल फेमिली के सदस्य के रूप में राजनीतिक पेंशन मिलती थी। तब यह रकम 1 टका 26 आना आठ पैसे थी। मिर्जा फरीदुद्दीन को वर्ष 1953 तक पेंशन मिलती रही। उनके गुजर जाने के बाद मिर्जा आलमगीर ने राजनीतिक पेंशन के लिए आवेदन किया लेकिन फाइल जाने कहां अटकी कि आज तक कुछ न हो पाया।
मौजूदा हालात पर बात छेड़ते ही मिर्जा मुस्कुराने की कोशिश करते हैं मगर उनकी आंखें डबडबा जाती हैं। कहते हैं, वक्त ने इस हाल में ला छोड़ा है और इससे पार पाने के लिए जो कर सकता हूं, करता हूं। बड़ा बेटा बीमारी से चल बसा, छोटे को अदावत में दाल मंडी के पास गोली मार दी। मंझला, जिसे लोग बड़े मिर्जा कहते हैं, दो महीने से जेल में है। बकौल आलमगीर, छोटे बेटे की हत्या का जिस विक्की खान पर आरोप है, हाल ही में उस पर हमला हो गया। इस मामले में बड़े मिर्जा को शक के आधार पर फंसा दिया गया।
सन् 1962 से वह वर्क बनाते आ रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई नहीं हो पाई इसलिए बचपन में ही चांदी कूटने का काम सीख लिया और फिर इसी धंधे में रह गए। पहले एक गड्डी वर्क बनाने पर 1.90 रुपये मजदूरी मिलती थी। इधर कुछ वर्षों तक 150-200 रुपये मिल जाते हैं। 2010 तक आलमगीर ने आठ से 12 घंटे तक हथौड़ी चलाई मगर अब 75 साल की उम्र में सांस फूलने लगती है। सो यह भी कब तक चल पाएगा, कुछ पता नहीं।

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