दूबे छपरा रिंग बंधा – टूटते ही सुनामी जैसी हलचल,कौन है आखिर ज़िम्मेदार, क्या खुली प्रशासन की पोल

अखिलेश सैनी.
बलिया। इसे प्रशासनिक लापरवाही कहें या प्रकृति का कोप…? समझ से परे है, क्योंकि जब-जब गंगा की लहरों ने सीना तानकर अठखेलियां खेली है, तब-तब रिंग बंधा के गर्भ में बसे ग्रामीणों की छातियों पर लहरों ने तांडव किया है। यकीन न हो तो इतिहास के पन्नों को पलट लें। सन् 2003 व 2013 के आंकड़े यही बयां करते है। एक और इत्तेफाक इस बंधे के टूटने से जुड़ा है। सन् 2003 व2013 में यही रिंग बंधा 25 अगस्त को टूटकर इन्हीं गांवों को अपने आगोश में ले लिया था। उस समय भी प्रशासन लम्बे-चौड़े दावे और आश्वासन देते हुए अपनी पीठ थपथपा रहा था कि मां गंगा ने पलक झपकते ही गरीबों की सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि डालने वाले प्रशासनिक अमले की कलई खोल दी।

इन सबके बीच जैसे ही बंधा टूटा,लगा सुनामी आ गया। चहुंओर चीख-पुकार मच गयी। 2014 व 2015 में बाढ़ की विभिषिका ऐसी न थी,लिहाजा प्रशासनिक दावे सच साबित हुए। लेकिन बंधा चरमरा अवश्य गया था। हर साल की भांति इस साल भी प्रशासन से लगायत तमाम खद्दरधारियों ने जमकर शिगूफेबाजी की। किसी किसी ने तो यहां तक कह डाला था कि बंधे को बचाने के लिए पानी की तरह पैसा प्रदेश सरकार बहा रही है। किसी भी कीमत पर बंधा टूटने नहीं दिया जायेगा। अगस्त 2016 में जैसे-जैसे बाढ़ का प्रकोप बढ़ता गया, वैसे-वैसे खद्दरधारी पर्दे के पीछे होते चले गये और ग्रामीणों के हलक सूखने लगे, क्योंकि उनके सामने इतिहास बतौर उदाहरण खड़ा था। इन सबके बावजूद ग्रामीणों ने पूरे हौंसले व जज्बे के साथ डीएम गोविन्द राजू एनएस व एसपी प्रभाकर चौधरी की कर्त्तव्य परायणता को देखकर बंधे को बचाने के लिए कमर कस लिया। दिन-रात एक कर बंधा को बचाने का अनवरत प्रयास होता रहा। कमोवेश, हर किसी ने इसमें सहयोग किया, लेकिन अंतत: प्रकृति के स्वभाव के साथ खिलवाड़ कर अपनी जेबे मोटी करने वाले तथाकथित और सिंचाई विभाग की मां गंगा ने कलई खोल दी। सूत्रों की माने तो बाढ़ की विभीषिका से पहले ही शासन स्तर से इस बंधे को बचाने के लिए करोड़ों रुपये अवमुक्त किया गया था। सवाल यह है कि आखिर उन करोड़ों रुपयों का हुआ क्या? नि:संदेह यदि उसका सदुपयोग हुआ होता तो 15 गांव आज जलमग्न नहीं होते। यह सवाल आज हर किसी की जुबां पर तैर रहा है।

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