सोवियत रूस – 25 साल बाद भी ज़िन्दा है ख्वाब
शबाब ख़ान
अगस्त 1991 में मॉस्को में तेजी से घट रही घटनाओं की तस्वीरें पूरी दुनिया में छाई हुई थीं. वहां कुछ ऐसा हो रहा था जिसकी कल्पना भी मुश्किल थी. एक दुनिया ढह रही थी. उस दुनिया को बचाने की आखिरी कोशिश के तहत कम्युनिस्ट पार्टी के पुराने और कट्टर सदस्यों ने तख्ता पलटने की कोशिश की. अगस्त 1991 को क्रीमिया प्रायद्वीप में छुट्टियां मना रहे रूसी राष्ट्रपति मिखाईल गोर्बाचेव को गिरफ्तार कर लिया गया. राजधानी मॉस्को में तब आपातकाल के हालात थे. गुस्साए लोग रूसी टैंकों का सामना करने के लिए सड़कों पर उतर आए. लेकिन कुछ ही दिनों में पासा पलट गया. सेना ने तख्तापलट करने वाले नेताओं के आदेश को मानने से इनकार कर दिया. नेता भाग गए. और कुछ ही महीनों में सोवियत रूस टुकड़े टुकड़े हो गया.
सोवियत रूस का ख्वाब
सोवियत संघ को “मरे” 25 साल हो चुके हैं. 19 अगस्त 1991 को कट्टर कम्युनिस्टों ने वहां तख्तापलट की नाकाम कोशिश की जिसके बाद संघ के आखिरी दिन शुरू हो गए. लेकिन आज भी बहुत से रूसी लोग चाहते हैं कि रूसी साम्राज्य फिर से खड़ा हो जाए. सोवियत संघ के विघटन के दो दशक पूरे होने पर इन लोगों को सोवियत रूस की कितनी याद आ रही है, इसका अंदाजा मॉस्को की संस्था वाजियोम के एक सर्वे से होता है. इस सर्वे के मुताबिक 20 फीसदी लोग चाहते हैं कि सोवियत रूस लौट आए. एक दशक पहले ऐसा चाहने वालों की तादाद 16 फीसदी थी. यानी आज ढाई दशक बाद लोगों को सोवियत रूस के दिन याद आ रहे हैं जब वे दुनिया की बड़ी ताकत कहलाते थे. यही वजह है कि रूसी प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन जैसे नेता नया सोवियत रूस बनाने के सपने देखते हैं. पुतिन ने एक बार कहा भी था कि सोवियत संघ का टूटना 20वीं सदी की सबसे बड़ी भूराजनीतिक त्रासदी थी.
नेताओँ की कोशिशें
पुतिन बेलारूस के साथ एकीकरण की बात साफ शब्दों में कह चुके हैं. बाकी पूर्व सोवियत राष्ट्रों के साथ भी मिलकर एक ताकत बनाने के बारे में बातचीत चल रही है. हालांकि सोवियत संघ जैसी ताकत का दोबारा लौटना अब भी दूर की कौड़ी लगती है. संभावना न तो मॉस्को के नेतृत्व में पूर्व सोवियत संघ जैसी ताकत की है और न ही यूरोपीय संघ जैसी किसी ताकत की. जानकार कहते हैं कि यूरोपीय संघ जैसी ताकत बनने के लिए लोकतांत्रिक ढांचे की जरूरत होगी. मॉस्को में मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था मेमोरियल से जुड़ीं इतिहासकार इरीना शेरबाकोवा कहती हैं लगभग सभी पूर्व सोवियत राष्ट्र इस तरह की व्यवस्था के आसपास भी नहीं हैं. सोवियत संघ की जगह लेने वाला कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स (सीआईएस) सच्ची राजनीतिक ताकत नहीं है. और आज 25 साल बीत जाने के बाद भी पूर्व कम्युनिस्ट उन्हीं बीमारियों से जूझ रहे हैं.
क्या हैं मुश्किलें
संघ का एक पूर्व देश जॉर्जिया नाटो और यूरोपीय संघ की सदस्यता के ख्वाब देख रहा है. वह 2008 में रूस के साथ लड़ाई के बाद सीआईएस से हट गया. पांच दिन चली इस लड़ाई के बाद रूस ने जॉर्जिया के दो इलाकों अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया को स्वतंत्र देशों के रूप में मान्यता दे दी. इसी तरह मोल्दोवा रिपब्लिक से अलग हुआ ट्रांसनिस्ट्रिया इलाका भी सालों से रूस के नियंत्रण में है. वहां अगले महीने राष्ट्रपति चुनाव होने हैं.
नागोर्नो-कराबाख का इलाका भी इसी तरह के विवादों में है. अंतरराष्ट्रीय कानून के हिसाब से यह इलाका अजरबेजान का है. लेकिन 1994 में एक लंबी लड़ाई के बाद रूसी समर्थन वाले अर्मेनिया ने इस पर कब्जा कर लिया. हालांकि रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने कई बार इस विवाद को सुलझाने की कोशिश की. लेकिन अब तक कुछ नहीं हो सका है. मध्य एशिया के देश कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान मानवाधिकारों के हनन को लेकर लगातार अंतरराष्ट्रीय आलोचना झेलते हैं. वहां की नीतियों की सोवियत युग जैसी कहकर निंदा की जाती है. इन मुस्लिम बहुल देशों के दबंग शासकों को अब अरब जगत जैसी क्रांति का डर सता रहा है.
रूस में भी सब ठीक नहीं
और तो और, रूस में भी लोग वैसी ही दबंग सत्ता होने का रोना रोते हैं. हाल ही में पूर्व रूसी राष्ट्रपति गोर्बाचेव ने कहा कि उनके देश में तानाशाही जैसी सत्ता है. गोर्बाचेव को बहुत से लोग सोवियत रूस की कब्र खोदने वाले के रूप में देखते हैं. मार्च महीने में अपने 80वें जन्मदिन पर पूर्व सोवियत नेता पुतिन और मेदवेदेव को खरी खोटी सुनाई. उन्होंने कहा कि इन दोनों नेताओं ने सत्ता पर एकाधिकार कायम कर लिया है और बाकी राजनीतिक ताकतों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है. सोवियत रूस के विघटन के लिए पश्चिम में सम्मान पाने वाले गोर्बाचेव ने कहा कि खुलेपन और पुनर्निर्माण की उनकी नीतियों को फिर से अपनाया जाना चाहिए. इन्हीं नीतियों ने 1980 के दशक में सोवियत संघ के विघटन की नींव तैयार की थी.
शेर्बाकोवा भी गोर्बाचेव की इस बात से सहमत नजर आती हैं. वह मानती हैं कि रूस को वैसी ही लोकतांत्रिक शुरुआत की जरूरत है जैसी गोर्बाचेव और रूस के पहले राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के दौर में मिली. अगस्त 1991 में जब येल्तसिन संसदीय भवनों के पास एक टैंक पर खड़े नजर आए थे, तब वह रूसी लोगों के लिए एक उम्मीद की तरह उभरे थे. तब से अब तक रूस काफी बदल चुका है. बहुत सारे आर्थिक सुधार हो चुके हैं. राजनीतिक बदलावों से भी देश गुजर चुका है. लेकिन जानकारों को देश में आधुनिकता की ओर ले जाने वाला नेतृत्व नजर नहीं आ रहा है. इसलिए सोवियत रूस का फिर से बनने का सपना कच्ची नींद की सोच के अलावा कुछ भी नहीं.