शबाब ख़ान की कलम से —- यह शहर है हादसों का …
शबाब ख़ान
बेचैन हो उठना हमारा पल भर का सामूहिक-समाजिक बोध है। हरियाणा-पंजाब में फसलों के अवशेष जलाने से निकले धुएं नें दिल्ली पर धुंध की ऐसी चादर ओढ़ाई के गोया हम बेचैन हो उठे। सुर्खियाँ बनी। आम और ख़ास लोग बेचैन हो उठे। टीवी पर कुर्सियों पर पसरे स्पेश्लिस्टस् नें घुँध और धुँयें के फ़र्क का पोस्टमार्टम किया, और जब धुंध छटी तो हमारी बेचैनी और पर्यावरण के लिये अचानक उठ खड़ी हुई चिंता भी छंट गयी। और यही होता है आये दिन होने वाली झकझोरन घटनाओं-दुर्घटनाओं के मामले में। अभी हाल ही में पटना में एक नाव डूबनें से उसमें सवार 20 लोगो नें जल समाधि ले ली थी जिसे लोग अब तक वैसे ही भूल चुके होगें जैसे कुछ अरसा पहले छठ पर्व के दौरान हुये हादसे को भूल गये। वह हादसा याद होता तो शायद यह हादसा न होता।
हमारे देश में हर मोड़ और मौके पर दुर्घटनाएं मुहँ बाये खड़ी मिलती हैं, बारातियों से भरी बस को लेवल क्रासिंग पर मालगाड़ी उड़ा देती है तो पिता की चिता जलाकर लौटते पुत्र को सफ़ेद सूमों कुचल कर गायब हो जाती है, हम विचलित होते है क्षण भर के लिये … फिर से भूल जाने के लिये। हादसे होते है वहां जहां कोई आशंका-अंदेशा भी नही होता। सालभर पुराने पुल भरभराकर ढह जाते है, फर्राटे भर रही ट्रेन पटरी छोड़कर बाजू के खेत में आराम फरमाने निकल लेती है, तो अक्सर ट्रैक पर सुसताती पैसेंजर ट्रेन पर 120 किमी की रफ्तार से आती सुपरफास्ट पीछे से चढ़ जाती है। जब ऐसा होता है हम बेचैन हो उठते है, और कुछ ही देर में अपनी जिन्दगी की तमाम उलझनों का सिरा खोजनें में लग जाते हैं। यह पल भर की बेचैनी-विचिलता हमारी सामूहिक पहचान बन गयी है।
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के ऐटा जिले में हुये एक भीषण सड़क हादसे में एक दर्जन से अधिक बच्चे काल के गाल में समा गये। इतने बच्चों की असमय मौत नें पूरे समाज को विचलित किया। एक समाज के तौर पर इतना मृत्युधर्मी समाज क्या कहीं और भी होगा।
अराजकता, अव्यवस्था, उन्माद और मरणशीलता के घटकों से हमने ऐसा समाज रच डाला है जहां चारो ओर अस्तित्व का संघर्ष है। ज़िन्दा रहने की जद्दोजहद है, इस जद्दोजहद में जो कमजोर है, दुर्बल है, साधनहीन है उसका जीवन गुणांक छोटा हो जाता है, ज़िन्दा रहने का उसका संघर्ष भी कठिन है, वो चाहे नौका के साथ डूबनें वाले हो या सैलाब में बह जाने वाले लोग। सोचना पड़ेगा कि क्या इतना मरा हुआ समाज किसी श्राप का नतीजा है या हमारे ही सोशल डिस्ऑर्डर का परिणाम?
एक स्कूल जिसे शीत लहर के कारण प्रशासन के आदेश के तहत बंद रहना चाहिया था, वह खुला ही क्यो था? स्कूली बच्चों को ले जा रही बस क्या जरूरी मानकों का पालन करती थी? क्या बस का चालक परिवहन विभाग के मानकों का पालन करके ही नियुक्त हुआ था? अपने 18 वर्ष के छोटे पेशेवर अनुभव से बिना कोई जांच हुये ही दावे से कह सकता हूँ कि एक नही, अनगिनत उल्लंघनों के साथ ही यह बस बच्चों को लेकर सड़कों दौड़ती रही होगी। क्या तब हम में से किसी ने इस बस को देखा?
दुर्घटनास्थल का मंज़र दिलो-दिमाग को चाक कर देने वाला था। बस के मलबे में इधर-उधर बिखरे बच्चों के स्कूल बैग दरअसल स्कूल बैग नही हमारी सामाजिक व्यवस्था की उड़ चुकी धज्जियां थी। यह किसी एक ईकाई या किसी एक व्यक्ति की लापरवाही का सवाल नही है, यह एक समाज के तौर पर हमारे बदतर होते जाने का सुबूत है। सप्ताह दर सप्ताह तरह तरह की दुर्घटनाएं, अकाल मौत के मुँह में समाते लोग, उनकी चीख़-चीतकार। क्या यह सभी दृश्य मिलकर अराजकता, अव्यवस्था और उन्माद का एक कोलाज नही गढ़ते? क्या हमे वाकई इन सब से फ़र्क पड़ता है? क्या एक दर्जन से ज्यादा बच्चों की मौत हमें व्यावस्था-पसंद समाज बना पायेगी? क्या इस दिशा में सोचने को यह मौते हमें रत्ती भर भी प्रेरित करेगीं?
अराजकता और सड़कों का हमारे देश में एक अटूट रिश्ता बन गया है। बड़े लोगों का एक बड़ा हिस्सा भिन्न भिन्न प्रकार के वीआईपी में रूपातंरित हो गया है, इस हैसियत से उन्हे पुलिस पॉयलट और एस्कार्ट लगी हुई सुरक्षित सड़कें प्रदान कर दी जाती हैं, आम आदमी के लिये सड़कें एक बेरहम जगह में तब्दील हो गयी हैं, ऐसी जगह जो चलने की दैनिक जरूरत के अलावा भैंस-बकरी बाँधनें से लेकर तरह-तरह के त्योहार मनानें के काम मे लाई जाती है। अपने देश में सड़कें शक्ति-प्रदर्शन की सर्व-स्वीकृत स्थल बन गयी है। त्योहार हो, धार्मिक शोभा यात्राएं हों अथवा जन प्रतिनिधियों के विजयी जुलूस, सड़कें उन्माद को स्पेस दे सकने की बेलौस संभावनाओं से भरी पड़ी जगहे है। हर तरह का वर्चस्व, चाहे वो राजनीतिक हो, सामाजिक हो, धार्मिक हो अथवा किसी और तरह का अपनी प्रकटीकरण वह सड़कों पर ही करता है। कभी-कभी लगता है अपने देश में अतिक्रमण सड़कों का पर्याय बन गया है। सड़कों पर आप केवल उस दशा में सुरक्षित नही है जब आप उस पर सफ़र कर रहे हो बाकी हर हाल में आप सड़कों पर सुरक्षित हैं।
सड़क के दोनो ओर बेहतर दुनिया की तलाश में सड़क पार करना लाज़मी है, सिर्फ पार करना ही नही आम आदमी के लिये उस पर सफ़र करना अब सब से बड़ा जोखिम बन गया है, और यह जोखिम अपने देश मे कुछ ज्यादा ही है क्योकि हम एक ऐसे देश में रहते है जहां हर साल तकरीबन डेढ़ लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते है और यह तब है जब हम केवल एक विकासशील देश हैं यानि औरों के मुकाबले हमारे यहॉ कम वाहन है। सड़क को सड़क रहने देना हमारे समाज की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। क्षणिक विचलित होकर चीज़े भुला देने की हमारी आदत अब रोग बन गई है। शोक व्यक्त करने से आगे बढ़कर यह सुनिश्चित करना हम सबकी जिम्मेदारी है कि ऐसे हादसे फिर न हो। सुरक्षित सड़कें भी सुरक्षित सरहदों की तरह आवश्यक है। किसी भी समाज के चरित्र का सबसे बेहतर आंकलन सड़कों पर ही होता है। हर चीज को डंडे से लागू कराने की पशुवृति से परे हमें आत्मसंयम और स्वानुशासन की जरूरत है, जिसका हमारी शख्सियत में घोर अभाव है।
ऐसी घटनाओं को पुन: न होने देना ही दिवंगत मासूमों को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। कल्पना करें कि कैसा मातम पसरा होगा बच्चों के घर। बच्चे चले गये, रह गये उनकी किताबों के फड़फड़ाते पन्ने, उनमें से परियाँ निकलकर बच्चो को बहलाकर परी-लोक ले गई, शायद परी लोक की सड़कें बेहतर होगीं, वहॉ की सड़कों पर बच्चे महफूज़ रहेगें। वहां की सड़कें ही नही, वहॉ का समाज भी बेहतर होगा, हमसे कम अराजक, कम अव्यवस्थित और कम उन्मादी।
अलविदा बच्चों।
सोचने को बाघ्य करने वाला आलेख।
सोचने को बाघ्य करने वाला आलेख।